जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
पत्रकारिता : तब और अब | डॉ रामनिवास मानव के दोहे (काव्य)    Print this  
Author:डॉ रामनिवास मानव | Dr Ramniwas Manav

पत्रकारिता थी कभी, सचमुच मिशन पुनीत।
त्याग तपस्या से भरा, इसका सकल अतीत।।

बालमुकुन्द, विद्यार्थी, लगते सभी अनन्य।
पाकर जिनको हो गई, पत्रकारिता धन्य।।

कलम बनाकर हाथ को, लिखे रक्त से लेख।
बदली भारतवर्ष की, तभी भाग्य की रेख।।

कांटों-भरे थे रास्ते, मंजिल भी थी दूर।
पत्रकार थे सब मगर, हिम्मत से भरपूर।।

देश हुआ स्वाधीन जब, बदला सकल स्वरूप।
पत्रकारिता का हुआ, अब तो रूप कुरूप।।

पत्रकारिता अब बनी, 'ग्लैमर' का पर्याय।
मिशन रही थी जो कभी, आज बनी व्यवसाय।।

अब परोसता मीडिया, कुछ ऐसी 'कवरेज'।
कोई भी हो मामला, लगे सनसनीखेज।।

गलाकाट प्रतियोगिता, तथ्यों से खिलवाड़।
पत्रकारिता अब बनी, अपराधों की आड़।।

है 'ब्लैकमेलिंग' कहीं, कहीं स्वार्थ का खेल।
पत्रकार की नाक में, डाले कौन नकेल।।

यूं तो चौथे स्तम्भ का, अब भी अच्छा काम।
काली भेड़ों ने किया, किन्तु इसे बदनाम।।

पत्रकारिता यदि बने, उजला दर्पण आज।
बिम्बित हो इसमें तभी, सारा देश-समाज।।

राजनीति हो, खेल हो, हो कोई व्यापार।
सबकी उन्नति के लिए, सर्वोत्तम अखबार।।

-डॉ० रामनिवास 'मानव', डी०लिट
 571, सैक्टर-1, पार्ट-2, नारनौल-123001 (हरि)
 फोन : 01282-250055, 8053545632

 

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