अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
आशापञ्चक (काव्य)    Print this  
Author:बाबू गुलाबराय | Babu Gulabrai

आशा वेलि सुहावनी. शीतल जाको छांहि ।
जिहि प्रिय सुमन सुफलन ते, मधराई अधिकाहिं

आशा दीपक करत नीत, जिहि हिरदे में बास
ज्यों ज्यों छावे तिमिर घन, त्यों त्यों बड़े प्रकास

मानव-जीवन को सुखद, सरस जु देत बनाइ
सो आशा संजीवनी, किहि हत-भाग न भाइ

होहु निरासन हार में, धन्य लच्छ निज मान
तोमे ईश्वर अंश को, देत जु प्रकट प्रमान

मीत न होहु निराश अब, लखि समाज को हास
मधुऋतु आगम सूचहीं, पतझड़ फागुन मास

-गुलाबराय

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