जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
फिर नये मौसम की | ग़ज़ल  (काव्य)    Print this  
Author:भावना कुँअर | ऑस्ट्रेलिया

फिर नये मौसम की हम बातें करें
साथ खुशियों, ग़म की हम बातें करें

जगमगाते थे दिए भी साथ में
फिर भला क्यूँ, तम की हम बातें करें

जो दिया, उसने, खुशी से लें उसे
फिर ना ज़्यादा, कम की हम बातें करें

जो खुशी में भी छलक जाएँ कभी
ऐसे चश्म-ए-नम की हम बातें करें

घाव देने का, ना हम,सोचें कभी
घाव पे,मरहम की हम बातें करें

गम के छाए,बादलों के बीच में
खुशनुमा,आलम की हम बातें करें

जो दुःखी हैं, उनकी भी सोचें जरा
बस ना, पेंच-ओ-ख़म की हम बातें करें

हो रही हो, बात गंगाजल की गर
साथ में, ज़म-ज़म की हम बातें करें

-डॉ० भावना कुँअर
सिडनी (ऑस्ट्रेलिया)

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