अजनबी देश है यह (काव्य)    Print this  
Author:सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है
कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है;
जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,
नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है;
होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त-- 
द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है;
शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा,
कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है--
देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं,
फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है।

--सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
[काठ की घण्टियाँ]

 

Previous Page  |   Next Page
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें