अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं (काव्य)    Print this  
Author:दुष्यंत कुमार | Dushyant Kumar

कैसे मंज़र सामने आने लगे हैं
गाते गाते लोग चिल्लाने लगे हैं

अब तो इस तालाब का पानी बदल दो
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं

वो सलीबों के क़रीब आए तो हम को
क़ाएदे क़ानून समझाने लगे हैं

एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिस में तह-ख़ानों से तह-ख़ाने लगे हैं

मछलियों में खलबली है अब सफ़ीने
इस तरफ़ जाने से कतराने लगे हैं

मौलवी से डाँट खा कर अहल-ए-मकतब
फिर उसी आयात को दोहराने लगे हैं

अब नई तहज़ीब के पेश-ए-नज़र हम
आदमी को भून कर खाने लगे हैं

-दुष्यंत कुमार

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