भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।
स्वर्ग में विचार-सभा का अधिवेशन (विविध)    Print this  
Author:भारतेन्दु हरिश्चन्द्र | Bharatendu Harishchandra

स्‍वामी दयानन्‍द सरस्‍वती और बाबू केशवचन्‍द्रसेन के स्‍वर्ग में जाने से वहां एक बहुत बड़ा आंदोलन हो गया। स्‍वर्गवासी लोगों में बहुतेरे तो इनसे घृणा करके धिक्‍कार करने लगे और बहुतेरे इनको अच्‍छा कहने लगे। स्‍वर्ग में भी 'कंसरवेटिव' और 'लिबरल' दो दल हैं। जो पुराने जमाने के ऋषि-मुनि यज्ञ कर-करके या तपस्‍या करके अपने-अपने शरीर को सुखा-सुखाकर और पच-पचकर मरके स्‍वर्ग गए हैं उनकी आत्‍मा का दल 'कंसरवेटिव' है, और जो अपनी आत्‍मा ही की उन्नति से और किसी अन्‍य सार्वजनिक उच्‍च भाव संपादन करने से या परमेश्‍वर की भक्ति से स्‍वर्ग में गए हैं वे 'लिबरल' दलभक्‍त हैं। वैष्‍णव दोनों दल के क्‍या दोनों से खारिज थे, क्योंकि इनके स्‍थापकगण तो लिबरल दल के थे किं‍तु ये लोग 'रेडिकल्‍स' क्‍या महा-महा रेडिकल्‍स हो गए हैं। बिचारे बूढ़े व्‍यासदेव को दोनों दल के लोग पकड़-पकड़ कर ले जाते और अपनी-अपनी सभा का 'चेयरमैन' बनाते थे, और व्‍यास जी भी अपने प्राचीन अव्यवस्थित स्‍वभाव और शील के कारण जिसकी सभा में जाते थे वैसी ही वक्‍तृता कर देते थे। कंसरवेटिवों का दल प्रबल था; इसका मुख्‍य कारण यह था कि स्‍वर्ग के जमींदार इन्‍द्र, गणेश प्रभृति भी उनके साथ योग देते थे, क्योंकि बंगाल के जमींदारों की भांति उदार लोगों की बढ़ती से उन बेचारों को विविध सर्वोपरि बलि और मान न मिलने का डर था।

कई स्‍थानों पर प्रकाश-सभा हुई। दोनों दल के लोगों ने बड़े आतंक से वक्‍तृता दी। 'कंसरवेटिव' लोगों का पक्ष समर्थन करने को देवता भी आ बैठे और अपने-अपने लोकों में भी उस सभा की स्‍थापना करने लगे। इधर 'लिबरल' लोगों की सूचना प्रचलित होने पर मुसलमानी-स्‍वर्ग और जैन स्‍वर्ग तथा क्रिस्‍तानी स्‍वर्ग से पैगंबर, सिद्ध, मसीह प्रभृति हिंदू-स्‍वर्ग में उपस्थित हुए और 'लिबरल' सभा में योग देने लगे। बैकुंठ में चारो ओर इसी की धूम फैल गई। 'कंसरवेटिव' लोग कहते, 'छि:, दयानन्‍द कभी स्‍वर्ग में आने के योग्‍य नहीं; इसने 1. पुराणों का खंडन किया, 2. मूर्तिपूजा की निंदा की, 3. वेदों का अर्थ उलटा-पुलटा कर डाला, 4. दक्ष नियोग करने की विधि निकाली, 5. देवताओं का अस्तित्व मिटाना चाहा, और 6. अंत में सन्यासी होकर अपने का जलवा दिया। नारायण! नारायण! ऐसे मनुष्‍य की आत्‍मा को कभी स्वर्ग में स्‍थान मिल सकता है, जिसने ऐसा धर्म-विप्‍लव कर दिया और आर्यावर्त को धर्म-वहिर्मुख किया!'

एक सभा में काशी के विश्‍वनाथ जी ने उदयपुर के एकलिंग जी से पूछा, 'भाई! तुम्हारी क्‍या मति मारी गई जो तुमने ऐसे पतित को अपने मुंह लगाया और अब उसके दल के सभापति बने हो, ऐसा ही करना है तो जाओ लिबरल लोगों में योग दो।' एकलिंग जी ने कहा, 'भाई, हमारा मतलब तुम लोग नहीं समझ सकते। हम उसकी बुरी बातों को न मानते न उसका प्रचार करते, केवल अपने यहां के जंगल की सफाई का कुछ दिन उसे ठेका दिया, बीच में वह मर गया। अब उसका माल-मता ठिकाने रखवा दिया तो क्या बुरा किया।'

कोई कहता, 'केशवचन्‍द्रसेन! छि छि! इसने सारे भारतवर्ष का सत्‍यानाश कर डाला। 1. वेद-पुराण सबको मिटाया, 2. क्रिस्‍तान, मुसलमान सबको हिंदू बनाया, 3. खाने-पीने का विचार कुछ न बाकी रखा, 4. मद्य की तो नदी बहा दी। हाय-हाय, ऐसी आत्मा क्‍या कभी बैकुंठ में आ सकती है!'

ऐसे ही दोनों के जीवन की समालोचना चारों ओर होने लगी।

लिबरल लोगों की सभा भी बड़ी धूमधाम से जमती थी। किंतु इस सभा में दो दल हो गए थे, एक जो केशव की विशेष स्‍तुति करते, दूसरे वे जो दयानन्‍द को विशेष आदर देते थे। कोई कहता, अहा धन्‍य दयानन्‍द जिसने आर्यावर्त के निंदित आलसी मूर्खों की मोह-निद्रा भंग कर दी। हजारों मूर्खों को ब्राह्मणों के (जो कंसरवेटिवों के पादरी और व्‍यर्थ प्रजा का द्रव्‍य खाने वाले हैं) फंदे से छुड़ाया। बहुतों को उद्योगी और उत्‍साही कर दिया। वेद में रेल, तार, कमेटी, कचहरी दिखाकर आर्यों की कटती हुई नाक बचा ली। कोई कहता, धन्य केशव! तुम साक्षात दूसरे केशव हो। तुमने बंग देश की मनुष्‍य नदी के उस वेग को, जो क्रिश्‍चन समुद्र में मिल जाने को उच्‍छलित हो रहा था, रोक दिया। ज्ञानकर्म का निरादर करके परमेश्‍वर का निर्मल भक्ति-मार्ग तुमने प्रचलित किया।

कंसरवेटिव पार्टी में देवताओं के अतिरिक्‍त बहुत लोग थे जिनमें याज्ञवल्‍क्‍य प्रभृति कुछ तो पुराने ऋषि थे और कुछ नारायण भट्ट, रघुनन्‍दन भट्टाचार्य, मण्‍डन मिश्र प्रभृति स्‍मृति ग्रंथकार थे।

लिबरल दल में चैतन्‍य प्रभृति आचार्य, दादू, नानक, कबीर प्रभृति भक्‍त और ज्ञानी लोग थे। अद्वैतवादी भाष्‍यकार आचार्य पंचदशीकार प्रभृति पहले दलमुक्‍त नहीं होने पाए। मिस्‍टर ब्रैडला की भांति इन लोगों पर कंसरवेटिवों ने बड़ा आक्षेप किया किंतु अंत में लिबरलों की उदारता से उनके समाज में इनका स्‍थान मिला था।

दोनों दलों के मेमोरियल तैयार कर स्‍वाक्षरित होकर परमेश्‍वर के पास भेजे गए। एक में इस बात पर युक्ति और आग्रह प्रकट किया था कि केशव और दयानन्‍द कभी स्‍वर्ग में स्‍थान न पावें और दूसरे में इसका वर्णन था कि स्‍वर्ग में इनको सर्वोत्तम स्‍थान दिया जाए।

ईश्‍वर ने दोनों दलों के डेप्‍यूटेशन को बुलाकर कहा, 'बाबा, अब तो तुम लोगों की 'सैल्‍फगवर्नमेंट' है। अब कौन हमको पूछता है, जो जिसके जी में आता है करता है। अब चाहे वेद क्‍या संस्‍कृत का अक्षर भी स्‍वप्‍न में भी न देखा हो पर धर्म विषय पर वाद करने लगते हैं। हम तो केवल अदालत या व्‍यवहार या स्त्रियों के शपथ खाने को ही मिलाए जाते हैं। किसी को हमारा डर है? कोई भी हमारा सच्‍चा 'लायक' है? भूत-प्रेत, ताजिया के इतना भी तो हमारा दरजा नहीं बचा। हमको क्‍या काम चाहे बैकुंठ में कोई आवे। हम जानते हैं कि चारो लड़कों (सनक आदि) ने पहले ही से चाल बिगाड़ दी है। क्‍या हम अपने विचारे जयविजय को फिर राक्षस बनवावें कि किसी का रोकटोक करें। चाहे सगुन मानो चाहे निर्गुन, चाहे द्वैत मानो चाहे अद्वैत, हम अब न बोलेंगे। तुम जानो स्‍वर्ग जाने।'

डेप्‍यूटेशन वाले परमेश्‍वर की ऐसी कुछ खिजलाई हुई बात सुनकर कुछ डर गए। बड़ा निवेदन-सिवेदन किया। किसी प्रकार परमेश्‍वर का रोष शांत हुआ। अंत में परमेश्‍वर ने इस विषय के विचार के हेतु एक 'सिलेक्‍ट कमेटी' की स्‍थापना की। इसमें राजा राममोहन राय, व्‍यासदेव, टोडरमल, कबीर प्रभृति भिन्‍न-भिन्‍न मत के लोग चुने गए। मुसलमानी-स्‍वर्ग से एक 'इमाम', क्रिस्‍तानी से 'लूथर', जैनी से पारसनाथ, बौद्धों से नागार्जुन और अफ्रीका से सिटोवायों के बाप को इस कमेटी का 'एक्‍स आफीशियो मेंबर' नियुक्‍त किया। रोम के पुराने 'हरकुलिस' प्रभृति देवता तो अब गृह-संन्‍यास लेकर स्‍वर्ग ही में रहते हैं और पृथ्‍वी से अपना संबंध मात्र छोड़ बैठे हैं, तथा पारसियों के 'जरदुश्‍तजी' को 'कारेस्‍पांडिग आनरेरी मेंबर' नियत किया और आज्ञा दी कि तुम लोग इस सब कागज-पत्र देखकर हमको रिपोर्ट करो। उनकी ऐसी भी गुप्‍त आज्ञा थी कि एडिटरों की आत्‍मागण को तुम्‍हारी किसी 'कारवाई' का समाचार तब तक न मिले जब तक कि रिपोर्ट हम न पढ़ लें, नहीं ये व्‍यर्थ चाहे कोई सुने चाहे न सुने अपनी टॉय-टॉय मचा ही देंगे।

सिलेक्‍ट कमेटी का कोई अधिवेशन हुआ। सब कागज-पत्र देखे गए। दयानन्‍दी और केशवी ग्रंथ तथा उनके अनेक प्रत्युत्तर और बहुत से समाचार पत्रों का मुलाहिजा हुआ। बालशास्‍त्री प्रभृति कई कंसरवेटिव और द्वारकानाथ प्रभृति लिबरल नव्‍य आत्‍मागणों की इसमें साक्षी ली गई। अंत में कमेटी या कमीशन ने जो रिपोर्ट की उसकी मर्म बात यह थी कि :

'हम लोगों की इच्‍छा न रहने पर भी प्रभु की आज्ञानुसार हम लोगों ने इस मुकदमे के सब कागज-पत्र देखे। हम लोगों ने इन दोनों मनुष्‍यों के विषय में जहां तक समझा और सोचा है निवेदन करते हैं। हम लोगों की सम्‍मति में इन दोनों पुरुषों ने प्रभु की मंगलमयी सृष्टि का कुछ विघ्‍न नहीं किया वरंच उसमें सुख और संतति अधिक हो इसी में परिश्रम किया। जिस चंडाल रूपी आग्रह और कुरीति के कारण मनमाना पुरुष धर्मपूर्वक न पाकर लाखों स्‍त्री कुमार्ग गामिनी हो जाती हैं, लाखों विवाह होने पर भी जन्‍मभर सुख नहीं भोगने पातीं, लाखों गर्भ नाश होते और लाखों ही बाल-हत्‍या होती हैं, उस पापमयी परम नृशंस रीति को इन लोगों ने उठा देने में शक्‍यभर परिश्रम किया। जन्‍मपत्री की विधि के अनुग्रह से जब तक स्‍त्री पुरुष जिएं एक तीर घाट एक मीर घाट रहें, बीच में इस वैमनस्य और असंतोष के कारण स्‍त्री व्‍यभिचारिणी, पुरुष विषयी हो जाएं, परस्‍पर नित्‍य कलह हो, शांति स्‍वप्‍न में भी न मिले, वंश न चले, यह उपद्रव इन लोगों से नहीं सहे गए। विधवा गर्भ गिरावै, पंडित जी या बाहू साहब यह सह लेंगे, वरंच चुपचाप उपाय भी करवा देंगे, पाप को नित्‍य छिपाएंगे, अंततोगत्वा निकल ही जाएं तो संतोष करेंगे, इस दोष को इन दोनों ने नि:संदेह दूर करना चाहा। सवर्ण पात्र न मिलने से कन्या को वर मूर्ख अंधा वरंच नपुंसक मिले तथा वर को काली कर्कशा कन्‍या मिले जिसके आगे बहुत बुरे परिणाम हों, इस दुराग्रह को इन लोगों ने दूर किया। चाहे पढ़े हों चाहे मूर्ख, सुपात्र हों कि कुपात्र, चाहे प्रत्‍यख व्‍यभिचार करें या कोई भी बुरा कर्म करें, पर गुरु जी हैं, पंडित जी हैं, इनका दोष मत कहो, कहोगे तो पतित होगे, इनको दो, इनको राजी रखो; इन सत्यानाशी संस्कारों को इन्होंने दूर किया। आर्य जाति दिन-दिन ह्रास हो, लोग स्‍त्री के कारण, धन, नौकरी, व्‍यापार आदि के लोभ से, मद्यपान के चसके से, बाद में हार कर राजकीय विद्या का अभ्‍यास करके मुसलमान या क्रिस्‍तान हो जाएं, आमदनी एक मनुष्‍य की भी बाहर से न हो केवल नित्‍य व्‍यय हो, अंत में आर्यों का धर्म और जाति कथाशेष रह जाए, किंतु जो बिगड़ा सो बिगड़ा फिर जाति में कैसे आवेगा, कोई भी दुष्कर्म किया तो छिपके क्‍यों नहीं किया, इसी अपराध पर हजारों मनुष्‍य आर्य पंक्ति से हर साल छूटते थे, उसको इन्‍होंने रोका। सबसे बढ़ कर इन्‍होंने यह कार्य किया, सारा आर्यवर्त जो प्रभु से विमुख हो रहा था, देवता बिचारे तो दूर रहे, भूत-प्रेत-पिचाश-मुरदे, सांप के काटे, बाघ के मारे, आत्‍महत्‍या करके मरे, जल, दब या डूबकर मरे लोग, यही नहीं, औलिया शहीद और ताजिया गाजीमियां, को मानने और पूजने लग गए थे, विश्‍वास तो मानो छिनाल का अंग हो रहा था, देखते-सुनते लज्‍जा आती थी कि हाय ये कैसे आर्य हैं, किससे उत्‍पन्‍न हैं, इस दुराचार की ओर से लोगों का अपनी वक्‍तृताओं के थपेड़े के बल से मुंह फेरकर सारे आर्यावर्त को शुद्ध 'लायल' कर दिया।

'भीतरी चरित्र में इन दोनों के जो अंतर हैं वह भी निवेदन कर देना उचित है। दयानन्‍द की दृष्टि हम लोगों की बुद्धि में अपनी प्रसिद्ध पर विशेष रही। रंग-रूप भी इन्होंने कई बदले। पहले केवल भागवत का खंडन किया। फिर सब पुराणों का। फिर कई ग्रंथ माने, कई छोड़े। अपने काम के प्रकरण माने, अपने विरुद्ध को क्षेपक कहा। पहले दिगंबर मिट्टी पोते महात्‍यागी थे। फिर संग्रह करते-करते सभी वस्त्र धारण किए। भाष्‍य में भी रेल, तार आदि कई अर्थ जबरदस्ती किए। इसी से संस्कृत विद्या को भलि-भांति न जानने वाले ही प्रायः: इनके अनुयायी हुए। जाल को छुरी से न काटकर दूसरे जाल ही से जिसको काटना चाहा इसी से दोनों आपस में उलझ गए और इसका परिणाम गृह-विच्‍छेद उत्पन्न हुआ।

'केशव ने इनके विरुद्ध जाल काटकर परिष्कृत पथ प्रकट किया। परमेश्वर से मिलने-मिलाने की आड़ या बहाना नहीं रखा। अपनी शक्ति की उच्‍छलित लहरों में लोगों का चित्त आर्द्र कर दिया। यद्यपि ब्राह्मण लोगों में सुरा-मांसादि का प्रचार विशेष है किंतु इसमें केशव का दोष नहीं। केशव अपने अटल विश्‍वास पर खड़ा रहा। यद्यपि कूचिबिहार के संबंध करने से और यह कहने से कि ईसा मसीह आदि उससे मिलते हैं, अंतावस्‍था के कुछ पूर्व उनके चित्त की दुर्बलता प्रकट हुई थी, किंतु वह एक प्रकार का उन्माद होगा या जैसे बहुतेरे धर्म प्रचारकों ने बहुत बड़ी बातें ईश्वर की आज्ञा बतला दीं वैसे ही यदि इन बेचारों ने एक-दो बात कही तो क्‍या पाप किया। पूर्वोक्‍त कारणों से ही केशव का मरने पर जैसा सारे संसार में आदर हुआ वैसा दयानन्‍द का नहीं हुआ। इसके अतिरिक्त इन लोगों के हृदय में भीतर छिपा कोई पुण्‍य-पाप रहा हो तो उसको हम लोग नहीं जानते, इसका जानने वाला केवल तू ही है।'

इस रिपोर्ट पर विदेशी मेंबरों ने कुछ क्रुद्ध होकर हस्‍ताक्षर नहीं किया।

रिपोर्ट परमेश्वर के पास भेजी गई। इसको देखकर इस पर क्‍या आज्ञा हुई और वे लोग कहां भेजे गए यह जब हम भी वहां जाएंगे और फिर लौटकर आ सकेंगे तो पाठक लोगों को बतलावेंगे या आप लोग कुछ दिन पीछे आप ही जानोगे।

--भारतेंदु हरिश्चंद्र

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