यह संदेह निर्मूल है कि हिंदीवाले उर्दू का नाश चाहते हैं। - राजेन्द्र प्रसाद।
दिविक रमेश की चार कविताएँ  (काव्य)    Print this  
Author:दिविक रमेश

सुनहरी पृथ्वी

सूरज
रातभर
मांजता रहता है
काली पृथ्वी को

तब जाकर कहीं
सुनहरी
हो पाती है
पृथ्वी।

 

#

पूरा आदमी

आकाश
चीख नहीं सकता
हम
चीख सकते हैं आकाश में।

कोई
क्या चीख सकता है
हम में ?


#

 

नहर

नदी
नहर होकर
मेरे गाँव आयी

नहर
फिर भी
नदी
न हो पायी।

 

#

 

रिश्ता - ठीक वही रिश्ता

नहीं चढ़ती कभी
लहर
लहर पर।

बस हल्का सा दबाव देकर
आगे की अपनी लहर को
कुछ और आगे बढ़ाती है।

और पीछे की लहर से भी
ठीक वही रिश्ता चाहती है।

- दिविक रमेश

 

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