देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
मिट्ठू (बाल-साहित्य )    Print this  
Author:मुंशी प्रेमचंद | Munshi Premchand

बंदरों के तमाशे तो तुमने बहुत देखे होंगे। मदारी के इशारों पर बंदर कैसी-कैसी नकलें करता है, उसकी शरारतें भी तुमने देखी होंगी। तुमने उसे घरों से कपड़े उठाकर भागते देखा होगा। पर आज हम तुम्हें एक ऐसा हाल सुनाते हैं, जिससे मालूम होगा कि बंदर लड़कों से भी दोस्ती कर सकता है।

कुछ दिन हुए लखनऊ में एक सरकस-कंपनी आयी थी। उसके पास शेर, भालू, चीता और कई तरह के और भी जानवर थे। इनके सिवा एक बंदर मिट्ठू भी था। लड़कों के झुंड-के-झुंड रोज इन जानवरों को देखने आया करते थे। मिट्ठू ही उन्हें सबसे अच्छा लगता। उन्हीं लड़कों में गोपाल भी था। वह रोज आता और मिट्ठू के पास घंटों चुपचाप बैठा रहता। उसे शेर, भालू, चीते आदि से कोई प्रेम न था। वह मिट्ठू के लिए घर से चने, मटर, केले लाता और खिलाता। मिट्ठू भी उससे इतना हिल गया था कि बगैर उसके खिलाए कुछ न खाता। इस तरह दोनों में बड़ी दोस्ती हो गयी।

एक दिन गोपाल ने सुना कि सरकस कंपनी वहां से दूसरे शहर में जा रही है। यह सुनकर उसे बड़ा रंज हुआ। वह रोता हुआ अपनी मां के पास आया और बोला, ''अम्मा, मुझे एक अठन्नी1 दो, मैं जाकर मिट्ठू को खरीद लाऊं। वह न जाने कहां चला जायेगा ! फिर मैं उसे कैसे देखूंगा ? वह भी मुझे न देखेगा तो रोयेगा।''


मां ने समझाया, ''बेटा बंदर किसी को प्यार नहीं करता। वह तो बड़ा शैतान होता है। यहां आकर सबको काटेगा, मुफ्त में उलाहने सुनने पड़ेंगे।''

लेकिन लड़के पर मां के समझाने का कोई असर न हुआ। वह रोने लगा। आखिर मां ने मजबूर होकर उसे एक अठन्नी निकालकर दे दी।


अठन्नी पाकर गोपाल मारे खुशी के फूल उठा। उसने अठन्नी को मिट्टी से मलकर खूब चमकाया, फिर मिट्ठू को खरीदने चला लेकिन मिट्ठू वहां दिखाई न दिया। गोपाल का दिल भर आया-मिट्ठू कहीं भाग तो नहीं गया? मालिक को अठन्नी दिखाकर गोपाल बोला, ''क्यों साहब, मिट्टू को मेरे हाथ बेचेंगे ?''

मालिक रोज उसे मिट्ठू से खेलते और खिलाते देखता था। हंसकर बोला, ''अबकी बार आऊंगा तो मिट्ठू को तुम्हें दे दूंगा।''

गोपाल निराश होकर चला आया और मिट्ठू को इधर-उधर ढूँढ़ने लगा। वह उसे ढूंढ़ने में इतना मगन था कि उसे किसी बात की खबर न थी। उसे बिलकुल न मालूम हुआ कि वह चीते के कठघरे के पास आ गया था। चीता भीतर चुपचाप लेटा था। गोपाल को कठघरे के पास देखकर उसने पंजा बाहर निकाला और उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा। गोपाल तो दूसरी तरफ ताक रहा था। उसे क्या खबर थी कि चीते का पंजा उसके हाथ के पास पहुंच गया है ! करीब था कि चीता उसका हाथ पकड़कर खींच ले कि मिट्ठू न मालूम कहां से आकर उसके पंजे पर कूद पड़ा और पंजे को दांतों से काटने लगा। चीते ने दूसरा पंजा निकाला और उसे ऐसा घायल कर दिया कि वह वहीं गिर पड़ा और जोर-जोर से चीखने लगा।

मिट्ठू की यह हालत देखकर गोपाल भी रोने लगा। दोनों का रोना सुनकर लोग दौड़े, पर देखा कि मिट्ठू बेहोश पड़ा है और गोपाल रो रहा है। मिट्ठू का घाव तुरंत धोया गया और मरहम लगाया गया। थोड़ी देर में उसे होश आ गया। वह गोपाल की ओर प्यार की आंखों से देखने लगा, जैसे कह रहा हो कि अब क्यों रोते हो ? मैं तो अच्छा हो गया!

कई दिन मिट्ठू की मरहम-पट्टी होती रही और आखिर वह बिल्कुल अच्छा हो गया। गोपाल अब रोज आता और उसे रोटियां खिलाता।

आखिर कंपनी के चलने का दिन आया। गोपाल बहुत रंजीदा था। वह मिट्ठू के कठघरे के पास खड़ा आंसू-भरी आंखों से देख रहा था कि मालिक ने आकर कहा, ''अगर तुम मिट्ठू को पा जाओ तो उसका क्या करोगे ?''

गोपाल ने कहा, ''मैं उसे अपने साथ ले जाऊंगा, उसके साथ-साथ खेलूंगा, उसे अपनी थाली में खिलाऊंगा, और क्या!''

मालिक ने कहा, ''अच्छी बात है, मैं बिना तुमसे अठन्नी लिए ही इसे तुम्हारे हाथ बेचता हूं।''

गोपाल को जैसे कोई राज मिल गया। उसने मिट्ठू को गोद में उठा लिया, पर मिट्ठू नीचे कूद पड़ा और उसके पीछे-पीछे चलने लगा। दोनों खेलते-कूदते घर पहुंच गये।

 

 

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