देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
निंदा रस (विविध)     
Author:हरिशंकर परसाई | Harishankar Parsai

‘क' कई महीने बाद आए थे। सुबह चाय पीकर अखबार देख रहा था कि वे तूफान की तरह कमरे में घुसे, साइक्लोन जैसा मुझे भुजाओं में जकड़ लिया। मुझे धृतराष्ट्र की भुजाओं में जकड़े भीम के पुतले की याद गई। जब धृतराष्ट्र की पकड़ में भीम का पुतला गया तो उन्होंने प्राणघाती स्नेह से उसे जकड़कर चूर कर डाला।
‘क' से क्या मैं गले मिला? हरगिज नहीं। मैंने शरीर से मन को चुपचाप खिसका दिया। पुतला उसकी भुजाओं में सौंप दिया। मुझे मालूम था कि मैं धृतराष्ट्र से मिल रहा हूं। पिछली रात को एक मित्र ने बताया कि ‘क' अपनी ससुराल आया है और ‘ग' के साथ बैठकर शाम को दो-तीन घंटे तुम्हारी निंदा करता रहा। छल का धृतराष्ट्र जब आलिंगन करे, तो पुतला ही आगे बढ़ाना चाहिए।

पर वह मेरा दोस्त अभिनय में पूरा है। उसके आंसू-भर नहीं आए, बाकी मिलन के हर्षोल्लास के सब चिह्न प्रकट हो गए। वह गहरी आत्मीयता की जकड़, नयनों से छलकता वह असीम स्नेह और वह स्नेहसिक्त वाणी।

बोला, ‘अभी सुबह गाड़ी से उतरा और एकदम तुमसे मिलने चला आया, जैसे आत्मा का एक खंड दूसरे खंड से मिलने को आतुर रहता है।' आते ही झूठ बोला। कल का आया है, यह मुझे मेरा मित्र बता गया था। कुछ लोग बड़े निर्दोष मिथ्यावादी होते हैं, वे आदतन, प्रकृति के वशीभूत झूठ बोलते हैं। उनके मुख से निष्प्रयास, निष्प्रायोजन झूठ ही निकलता है। मेरे एक रिश्तेदार ऐसे हैं। वे अगर बंबई जा रहे हैं और उनसे पूछें, तो वे कहेंगे, ‘कलकत्ता जा रहा हूं।' ठीक बात उनके मुंह से निकल नहीं सकती।

वह बैठा और ‘ग' की निंदा आरंभ कर दी। मनुष्य के लिए जो भी कर्म जघन्य है, वे सब ‘ग' पर आरोपित करके उसने ऐसे गाढ़े काले तारकोल से उसकी तस्वीर खींची कि मैं यह सोचकर कांप उठा कि ऐसी ही काली तस्वीर मेरी ‘ग' के सामने इसने कल शाम को खींची होगी।

सुबह से बातचीत के एजेंडा में ‘ग' प्रमुख विषय था।

अद्‌भुत है मेरा मित्र। उसके पास दोषों का ‘कैटलॉग' है। मैंने सोचा कि जब यह हर परिचित की निंदा कर रहा है, तो क्यों मैं लगे हाथ अपने विरोधियों की गत इसके हाथों करा लूं। मैं विरोधियों के नाम लेता गया और वह निंदा की तलवार से काटता चला गया। जैसे लकड़ी चीरने की आरा मशीन के नीचे मजदूर लकड़ी काटता है, वैसे ही।

मेरे मन में गत रात्रि उस निंदक मित्र के प्रति मैल नहीं रहा। दोनों एक हो गए। तीन चार घंटे बाद जब वह विदा हुआ तो मन में शांति और तुष्टि थी। निंदा की ऐसी ही महिमा है। निंदकों की सी एकाग्रता, परस्पर आत्मीयता, निमग्नता भक्तों में दुर्लभ है। इसलिए संतों ने निंदकों को ‘आंगन कुटी छवाय' पास रखने की सलाह दी है।

निंदा कुछ लोगों के लिए टॉनिक होती है। हमारी एक पड़ोसन वृद्धा बीमार थी। उठा नहीं जाता था। सहसा किसी ने आकर कहा कि पड़ोसी डॉक्टर साहब की लड़की किसी के साथ भाग गई। बस चाची उठी और दो-चार पड़ोसियों को यह बात अपने व्यक्तिगत ‘कमेंट' के साथ सुना आई। उस दिन से उनकी हालत सुधरने लगी।

ईर्ष्या-द्वेष से प्रेरित निंदा भी होती है। लेकिन इसमें वह मजा नहीं, जो मिशनरी भाव से निंदा करने में आता है। निंदकों को दंड देने की जरूरत नहीं, खुद ही दंडित है। आप चैन से सोइए और वह जलन के कारण सो नहीं पाता।

निंदा का उद्‌गम हीनता और कमजोरी से होता है। निंदा करके उसके अहं को तुष्टि मिलती है। ज्यों कर्म क्षीण होता जाता है, त्यों निंदा की प्रवृत्ति में दिनोंदिन इजाफा होता चला जाता है। इंद्र को बड़ा ईर्ष्यालू माना जाता है, क्योंकि वह निठल्ला है। स्वर्ग में देवताओं को बिना उगाया अन्न, महल मिल जाते हैं। अकर्मण्यता में उन्हें अप्रतिष्ठित होने का भय बना रहता है, इसलिए कर्मी मनुष्य से उन्हें ईर्ष्या होने लगती है।

निंदा कुछ लोगों की पूंजी होती है। बड़ा लंबा-चौड़ा व्यापार फैलाते हैं वे इस पूंजी से। कई लोगों की ‘रिस्पेक्टेबिलिटी' (प्रतिष्ठा) ही दूसरों की कलंक-कथाओं के पारायण पर आधारित होती है।

आप इनके पास बैठिए और सुन लीजिए, ‘बड़ा खराब जमाना गया। तुमने सुना? फलां...और अमुक...।' अपने चरित्र पर आंख डालकर देखने की इन्हें फुरसत नहीं होती। चेख़व की एक कहानी याद रही है। एक स्त्री किसी सहेली के पति की निंदा अपने पति से कर रही है। वह बड़ा उचक्का दगाबाज आदमी है। बेईमानी से पैसा कमाता है। कहती है कि मैं उस सहेली की जगह होती तो ऐसे पति को त्याग देती। तब उसका पति उसके सामने यह रहस्य खोलता है कि वह स्वयं बेईमानी से इतना पैसा लाता है। सुनकर स्त्री स्तब्ध रह जाती है। क्या उसने पति को त्याग दिया? जी हां, वह दूसरे कमरे में चली गई।

कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम में जो करने की क्षमता नहीं है, वह यदि कोई करता है तो हमारे अहम् को धक्का लगता है, हम में हीनता और ग्लानि आती है। तब हम उसकी निंदा करके उससे अपने को अच्छा समझकर तुष्ट होते हैं।

उस मित्र की मुलाकात के करीब दस-बारह घंटे बाद यह सब मन में रहा है। अब कुछ तटस्थ हो गया हूं। सुबह जब उसके साथ बैठा था तब मैं स्वयं निंदा के ‘काला सागर' में डूबता-उतरता था, कलोल कर रहा था। बड़ा रस है निंदा में। सूरदास ने इसे ‘निंदा सबद रसाल'कहा है।

- हरिशंकर परसाई

 

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश