देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
इंडियन काफ़्का (कथा-कहानी)     
Author:सुशांत सुप्रिय

मैं हूँ, कमरा है, दीवारें हैं, छत है, सीलन है, घुटन है, सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है। हाँ, अकेलापन, जो अकसर मुझे कटहे कुत्ते-सा काटने को दौड़ता है । पर जो मेरे अस्तित्व को स्वीकार तो करता है । जो अब मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र है ।

खुद में बंद मैं खुली खिड़की के पास जा खड़ा होता हूँ । अपनी अस्थिरता का अकेला साक्षी । बाहर एड्स के रोगी-सी मुरझाई शाम मरने-मरने को हो आई है । हवा चुप है । सामने पार्क में खड़े ऐंठे पेड़ चुप हैं । वहीं बेंच पर बैठे रोज़ बहस करने वाले दो सठियाए ख़बीस बूढे चुप हैं । बेंच के नीचे पड़ा प्रतिदिन अपनी ही दुम से झगड़ने वाला आवारा कुत्ता चुप है । एक मरघटी उदासी आसमान से चू-चू कर चुपचाप सड़क की छाती पर बिछती जा रही है । और सड़क चुप्पी की केंचुली उतार फेंकने के लिए कसमसा रही है ।

साथ वाले आँगन से उड़ कर मिस लिली की छटपटाती हँसी स्तब्ध फ़िज़ा में फ़्रीज़ हो जाती है । तभी नशे में धुत्त एक अजनबी स्वर भेड़िए-सा गुर्राता है । मिस लिली की हँसी अब पिघलने लगती है ।

मुझे अचानक लगता है जैसे मैं ऊब कर ढेर-सी उल्टी कर दूँगा । पर वैसा कुछ नहीं होता । खिड़की से नाता तोड़ कर मैं चारपाई से रिश्ता गाँठ लेता हूँ । चाहता हूँ , कुछ गुनगुनाऊँ । पर कोई ' नर्सरी-राइम ' भी याद नहीं आती । अनायास ही मेरी उँगलियाँ मेरी पुरानी कलाई-घड़ी में चाबी देना चाहती हैं , पर वह पहले से ही फ़ुल है । हाथ दो हफ़्ते लम्बी दाढ़ी खुजलाने लगते हैं । दाढ़ी कड़ी है । चुभती है । जेब से सिगरेट-पैकेट निकालता हूँ । लाइटर भी । सुलगाता हूँ । सुलगता हूँ । सिगरेट मुझे कश-कश पीने लगती है । मैं सिगरेट को पल-पल जीने लगता हूँ । भीतर कहीं कुछ जलने लगता है । राहत मिलती है । क्षणिक ही सही । कल गुप्ता को नई स्टोरी देनी है । नया फ़ीचर लिखना है अखबार के लिए , पर कुछ नहीं सूझता है । विचारों के उलझे धागे में अनगिनत गाँठें पड़ी हैं । झुटपुटे में पल सुलगते हैं और दम तोड़ते जाते हैं । और सिगरेट के राख-सी तुम्हारी याद झरने लगती है ...

ओ नेहा , तुम कहाँ हो ?

"यार , क्या ऑर्ट-मूवी के पिटे हीरो-सी शक्ल बना रखी है ! शेव क्यों नहीं करते ? "

मैं और नेहा ऐन. ऐम. पैलेस में लगी फ़िल्म ' क़यामत से क़यामत तक ' देख कर निकले थे । सर्द शाम थी । यूनिवर्सिटी गेट पर थ्री-वहीलर से उतर कर हम गर्ल्स-हॉस्टल की ओर बढ़ रहे थे । मूवी के बारे में बातें हो रही थीं । तभी नेहा ने कहा था , " कल मिस्टर मजनू यानी तुम अपनी दाढ़ी शेव करके आओगे , समझे ? "
"जानती हो , दाढ़ी में आदमी इंटेलेक्चुअल लगता है । "

" दाढ़ी में आदमी बंदर लगता है । डार्विन का बंदर ... "

सिगरेट का बचा हुआ हिस्सा उँगलियों को जलाने लगता है । मेज पर पड़ी कई दिन पुरानी जूठी तश्तरी को को ऐश-ट्रे बना उसे बुझा देता हूँ । एक और सींझी हुई रात मुझे आ दबोचेगी । इस अहसास से बचने की एक अधमरी कोशिश करता हूँ । ट्रांजिस्टर का स्विच ऑन कर देता हूँ ।

"यह आकाशवाणी है । अब आप क्लेयर नाथ से समाचार सुनिए ... "

खीझ कर बंद कर देता हूँ ट्रांजिस्टर । हुँह् ! समाचार ! रक्तचाप और बढ़ जाएगा समाचार सुनने से । वही वाहियात ख़बरें । सोचता हूँ -- हर सुबह अनाप-शनाप ख़बरों से भरे अख़बार कैसे धड़ाधड़ बिक जाते हैं । नेहा को भी अख़बार से चिढ़ थी ।

" ... फिर ? क्या सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " हम दोनों ' बॉटैनिकल गार्डन ' में टहल रहे थे । मैंने उसके बालों में एक सफ़ेद गुलाब लगा दिया था । और उस पर झुकते हुए उसे चूम लिया था । पर वह आशंकित लगी थी ।

" क्या बात है , नेहा ? "

और तब उसने पूछा था -- " फिर ? क्या सोचा है ? आगे क्या करोगे ? " मैं कुछ देर चुप रहा था । समय धड़धड़ा कर आगे बढ़ रहा था । फिर मैंने कहा था , " सोचता हूँ , कोई अख़बार ज्वाएन कर लूँ । "

" अख़बार ? " उसका चेहरा अजनबी हो आया था । उसके चेहरे पर कई भाव आए-गए थे । हवा में उसके अनकहे शब्दों की गूँज थी । उसने ज़ोर देकर कहा था , " क्या आर्ट मूवी के पिटे हीरो जैसी बातें कर रहे हो । किसी प्रतियोगिता-परीक्षा में क्यों नहीं बैठते ? "

हवा शांत-विरोध से बजने लगी थी ...


विचारों का मकड़-जाल मुझे अॉक्टोपस-सा जकड़ने लगता है । झटक देता हूँ उन्हें । पर नहीं झटक पाता हूँ अपनी बेबसी और लाचारी को । और अपने अंतहीन अकेलेपन को ।

ऊब कर एक और सिगरेट सुलगा लेता हूँ । बौराए समय से बचने के लिए कमरे में निगाह दौड़ाता हूँ । शाम के झुटपुटे में एक पूँछ-कटी छिपकली दीवार को नापने की तमन्ना लिए इधर से उधर भाग रही है । नादान । खुद ही थक-हार कर दुबक जाएगी किसी कोने में ।

एक लम्बा कश लेता हूँ । और धुएँ को भीतर तक बंद रहने देता हूँ । मज़ा आता है , कहीं भीतर तक खुद को झुलसा लेने में । खाँसी का एक दौरा पड़ता है । तकलीफ़देह । पर सिगरेट मुझे पीती रहती है । और मैं उसे जीता रहता हूँ । अच्छा भाईचारा है मेरा और सिगरेट का कमबख़्त । सीने में सुइयाँ-सी चुभती हैं और दर्द यह अहसास दिला जाता है कि मैं अभी ज़िंदा हूँ । अभिशप्त हूँ जीने के लिए इसकी-उसकी शर्तों पर । अचानक मुझे याद आता है कि मैं पिछले कुछ वर्षों से खुल कर हँसा नहीं हूँ । पर खुद से क्षमा-याचना भी नहीं कर पाता हूँ मैं ।

एक मुरझाई मुस्कान चेहरे पर आ कर सट जाती है । चेहरे की स्लेट से उसे पोंछ कर मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ । एक और सिमसिमी शाम ढल चुकी है । रोशनी एक अंतिम कराह के साथ बुझ चुकी है । एक और पसीजी रात मटमैले आसमान की छत से उतर कर मेरे सलेटी कमरे में घुसपैठ कर चुकी है । उसी कमरे में जहाँ मैं हूँ , दीवारें हैं , छत है , सीलन है , घुटन है , सन्नाटा है और मेरा अंतहीन अकेलापन है । हाँ , अकेलापन । मेरा एकमात्र शत्रु-मित्र ।

झुके हुए झंडे-से उदास पल मुझे घेर लेते हैं । दूसरी सिगरेट भी साथ छोड़ जाना चाहती है । कल गुप्ता को अखबार के लिए कौन-सा फ़ीचर दूँगा , पता नहीं । कुछ सूझ ही नहीं रहा । भीतर केवल एक मुर्दा हलचल भरी है । लगता है , यह नौकरी भी छूट जाएगी ।

बाहर एक अभागी टिटहरी ज़ोर-ज़ोर-ज़ोर से चीख़ कर सन्नाटे का ट्यूमर फोड़ देती है । शोर का मवाद रिसने लगता है । दूर किसी मुँहझौंसे कारख़ाने का भोंपू उदास सिम्फ़नी-सा बज उठता है । पड़ोस में मिस लिली का दरवाज़ा फ़टाक से बंद होने की आवाज़ कुछ देर स्तब्ध फ़िज़ा में जमी रहती है । फिर एक शराबी स्वर रुखाई से सीढ़ियों को कुचल कर अँधेरे में गुम जाता है । पार्क में पड़ा आवारा कुत्ता ऊँचे स्वर में रो उठता है । मिस लिली के यहाँ से पियानो की मातमी धुन रह-रह कर गूँज जाती है ।

भीतर-बाहर के माहौल की मनहूसियत के विरोध में मैं हवा को एक अशक्त ठोकर मारता हूँ । और खिड़की से बाहर सिगरेट का ठूँठ फेंक कर वापस चारपाई पर आ बैठता हूँ । किसी पर-कटी गोरैया-सा लुटा महसूस करता हूँ । पता नहीं क्यों , नेहा , आज तुम बहुत याद आ रही हो ...


"आई. ए. एस. का फ़ॉर्म क्यों नहीं भरते ? " कैंटीन में काफ़ी सिप करते हुए तुमने तीसरी बार पूछा था ।

"नेहा , आई.ए.एस. मेरे लिए नहीं है । " आख़िर मुझे कहना पड़ा था । और तब तुमने कहा था , " पिताजी मेरे लिए आई. ए. एस. लड़का ढूँढ़ रहे हैं ... "

बाहर पाशविक अँधेरा तेज़ी से झरने लगता है । फ़्यूज़ बल्ब-सा मैं चारपाई पर बुझा पड़ा रहता हूँ । । आज ढाबे में जा कर खाने का मन नहीं है ।

अनमने भाव से एक और सिगरेट सुलगा लेता हूँ । सोचता हूँ , चारपाई से उठ कर बिजली का लट्टू जला लूँ । फिर मन में आता है , कमरे में उजाला हो जाने से भी क्या फ़र्क पड़ेगा । मेरे भीतर उगे नासूरों के जंगल में फैला काले फ़ौलाद-सा घुप्प अँधेरा तो फिर भी वैसे ही जमा रहेगा । न जाने कब तक ।

सिगरेट पीते-पीते गला सूखने लगता है । फिर भी लेता जाता हूँ । कश पर कश ... कश पर कश । गोया खुद से बदला लेने की क़सम खा रखी हो ।

ओ नेहा , मेरी आत्मा के चेहरे पर अपनी स्मृतियों की खरोंच के अमिट निशान छोड़ कर तुम कहाँ चली गई ?

... बहुत पहले कभी एक आर्ट मूवी देखी थी । फ़िल्म की नायिका बचपन में लगे किसी सदमे की वजह से पागल हो जाती है । अमीर माँ-बाप बच्ची को गाँव में दादी के पास छोड़ जाते हैं । फिर बच्ची जवान हो जाती है । और ख़ूबसूरत भी । और नायक पहली मुलाक़ात में ही उससे प्यार करने लगता है । और एक दिन नायक अपने सच्चे प्रेम के बूते पर नायिका को ठीक कर देता है । और मानसिक रूप से स्वस्थ हो चुकी नायिका अपने पागलपन के दिनों को भूल जाती
है । और नायक अब उसके लिए एक अजनबी बन जाता है । फिर नायिका अपने माता-पिता के पास लौट जाती है । पर नायक इस सत्य को स्वीकार नहीं कर पाता है । और इस सदमे से वह पागल हो जाता है ...

गला कुछ ज़्यादा ही सूखने लगता है । सिगरेट बुझा देता हूँ । रोना चाहता हूँ । शायद सदियों से रोया नहीं हूँ । पर आँखों में आँसू का समुद्र बहुत पहले सूख चुका है । भीतर के खंडहर में रिक्तता की आँधी साँय-साँय करने लगती है । तनहा मैं तड़प उठता हूँ ।

मन कड़ा करके उठ बैठता हूँ । फिर लाइट जलाता हूँ । आँखें कुछ चौंधिया-सी जाती हैं । एक भटका हुआ चमगादड़ कमरे में घुस आया है । और बाहर निकलने के विफल प्रयत्न में बार-बार दीवारों से टकरा कर सिर धुन रहा है । किसी तरह उसे खुली खिड़की के रास्ते बाहर निकाल कर खिड़की बंद कर देता हूँ ।

मेज पर एक लम्बे अंतराल के बाद घर से आया पत्र पड़ा है । उठा कर एक बार फिर पढ़ डालता हूँ । पिता की तबीयत ठीक नहीं है । माँ का गठिया वैसा ही है । सुमी के हाथ पीले करने की चिंता पिता को घुन-सी खाए जा रही है । पिछले तीन महीनों से पिता को पेंशन नहीं मिली है । लिखा है -- ऐसा लड़का किस काम का जो घर वालों को सहारा न दे सके ...

आँखें मूँद कर एक लम्बी साँस लेता हूँ और बंद कर देता हूँ घर से आई चिट्ठी । सारी दिशाएँ ग़लत लगने लगती हैं । बाहर कोई बौराया मुर्ग़ा असमय बाँग दे रहा है । कल गुप्ता को अख़बार के लिए क्या फ़ीचर दूँगा , कुछ नहीं सूझता । अब तो यह नौकरी भी छूट जाएगी । दिल में आता है , अँधेरे से खूब बातें करूँ । उसे अपना दुखड़ा सुनाऊँ । या फिर किसी ऊँचे पहाड़ की चोटी से खुद को धक्का दे दूँ । लगता है जैसे भरी दुपहरी में मेरे सूर्य को ग्रहण लग गया है । जैसे मेरे जीवन की पतीली में रखा दूध फट गया है । जैसे मेरी पूरी ज़िंदगी बेहद अधूरी-सी है । जैसे मैं एक मिसफ़िट बन कर रह गया हूँ । ठहरे हुए पानी पर जमी काई बन कर रह गया हूँ । इंसान नहीं , कोई अदना-सा कीड़ा बन कर रह गया हूँ ...

सुशांत सुप्रिय
A-5001 ,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद - 201014 ( उ. प्र. )
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

 

#

फ़्रेंज़ काफ़्का (Franz Kafka) एक जर्मन भाषी बोहेमियन यहूदी उपन्यासकार और लघु-कथा लेखक थे।

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश