देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
गीली मिट्टी (कथा-कहानी)     
Author:अमृतराय


नींद में ही जैसे मैंने माया की आवाज़ सुनी और चौंककर मेरी आंख खुल गई। बगल के पलंग पर नज़र गई, माया वहां नहीं थी। आज इतने सवेरे माया कैसे उठ गई, कुछ बात समझ में नहीं आई ।

आवाज़ दरवाज़े पर से आई थी । मैं हड़बड़ाकर उठा और वहां पहुंचा, तो क्या देखता हूं कि माया दरवाज़ा खोले खड़ी है और बाहर के बरामदे में एक दुबला-पतला आदमी, मंझोले कद का, सिर्फ़ एक जरासी लुगड़ी लपेटे, बाकी सब धड़ और टांगें नंगी, उकडू बैठा है। माया दरवाज़ा खोलने आई, तो आज सबसे पहले इसी आदमी के दर्शन हुए। मैंने भी देखा और मुझे भी गुस्सा आया कि यह मरदूद कैसे आ मरा । मैंने डपट कर पूछा-‘कौन हो तुम ? यहां कैसे आए ?"

दोनों ही सवालों का जवाब आसान था-मैं एक गरीब भिखमंगा हूं जिसके सर पर छप्पर नहीं है। या- जी नहीं, शिकरम नहीं ली, यों ही चलकर आ गया। मगर उसने कोई जवाब नहीं दिया, जो कि मुझे और भी खला और मैंने आवाज़ में और भी तेजी लाते हुए कहा--"बोलता क्यों नहीं ? बहरा है?"

फिर भी कोई जवाब नहीं । जवाब हो भी क्या सकता था, अगर वह सचमुच बहरा था । मगर कौन कह सकता है कि वह बहरा था ही, आजकल इस तरह के बने हुए आदमी........ लेकिन वाक्य पूरा करने के पहले ही मुझे लगा कि यह मैं गलत बात कह रहा हूं। बने हुए आदमी दिन के वक्त भेस बनाकर भीख मांगा करते हैं--इस तरह रात को किसी के बरामदे में आकर सो नहीं जाते, जाड़े की ऐसी रात में। और, मेरा ध्यान उसके ओढ़ने-बिछौने पर गया। बिछौना निखहरी जमीन और ओढ़ना टाट का एक घिसा हुआ पौन गज का टुकड़ा (और हां एक चिक भी, जो उसने हमारे दरवाज़े से उतार कर अपने ऊपर डाल ली थी)। उस वक्त, जब कि एक गद्दे और एक लिहाफ़ से भी मेरा काम ठीक से नहीं चलता-जी होता है कि और कुछ ओढ़ लें-कैसे कटी होगी इसकी रात ? नींद तो क्या आई होगी ! दांत बजते रहे होंगे, जांघों में हाथ डाले राम का नाम जपता पड़ा रहा होगा, या शायद टहल-टहल कर ही रात काटी होगी। किसने देखा है ? और, किसको दिखाने के लिए यह शक्ल बनाई है ? इन ठंडी सूनी दीवारों को ? बने हुए आदमी ! यह क्या बना हुआ आदमी है। और अपनी बात खुद मुझे सालने लगी।

मगर उस आदमी को इस समय की मेरी आत्मपीड़ा से भी उतना ही कम प्रयोजन था, जितना दो मिनट पहले की कठोरता । ठिठुरते हुए हाथों से चिक दो दरवाज़े पर टांगने के बाद वह अब कच्चे पपीते के बीज, जो तमाम बिखरे हुए थे, बटोर कर एक जगह कर रहा था। लगता है, उसने हमारे ही पेड़ से एक कच्चा पपीता तोड़कर उससे अपनी भूख बुझाने की कोशिश की थी। लेकिन अभी शायद वह पूरी तरह जानवर नहीं बन पाया था, इसीलिए पूरा पपीता नहीं खा सका था। आधा टुकड़ा किसी तरह नोच-नाच कर वह खा गया था और आधा ज्यों-का-त्यों पड़ा था। पपीते के बीज सब इधर-उधर छिटके हुए थे, जिन्हें अब वह बटोर रहा था।

पता नहीं, क्यों उसे इस बात का खयाल आया। वह यह भी सोच सकता था कि जिसका घर है, वह सफ़ाई करवा ही लेगा। मगर नहीं, वह जानवर नहीं है कि सफ़ाई का उसे कोई खयाल न हो। जहां उसने रात गुजारी है-जहां से अब वह जा रहा है-उस जगह को गंदा करके वह नहीं जाना चाहता। मैं नहीं कह सकता कि उसके दिल में क्या बात थी। हो सकता है, बस इतनी ही बात रही हो कि यह सब गंदगी साफ़ कर दो, नहीं तो साहब नाराज़ होंगे और यदि अपने नौकर को बुलाकर दस-पांच लात-घूंसे लगवा देंगे ! जो भी बात उसके दिल में आई हो और जो भी उसके पहले के तज़ुर्बे रहे हों, मैं कुछ भी नहीं जानता। मैंने बस इतना देखा कि वह जाड़े के मारे ठिठुरती हुई उंगलियों से जैसे-तैसे गंदगी इकट्ठी कर रहा है।

पता नहीं कैसे-कैसे लोगों से उसका पाला पड़ता होगा, क्या-क्या उस पर बीतती होगी, दुनिया को यह कैसा समझता होगा ! आज इनसान जिस तरह तरक्की करता हुआ हजारों साल पीछे पहुंच गया है, जबकि वह पहाड़ की गुफ़ाओं और जंगलों में रहता था और इसी तरह नंगा घूमता था, और शायद इसी तरह कच्चे पपीतों पर बसर करता था। इस तरक्की में इस आदमी का क्या हाथ है? और, मुझे पता नहीं क्यों, उस पर बेहद तरस आया। इस पर कि दुनिया में उसका कोई न था, उसके पास कहीं अपनी एक नन्हीं-सी कोठरी भी न थी और बस, इसी आसमान के छप्पर के नीचे उसकी रातें बीतती थीं, और यह कि इस ठिठुरती हुई सर्दी में उसके तन पर बस एक लुगड़ी थी और वह गाय-बैल की तरह कच्चा पपीता खा रहा था। ...मगर इन सब बातों से ज्यादा इस बात पर कि उसने एक शब्द भी नहीं कहा। यह नहीं कि वह गीता का प्रवचन देने लग जाता, या आल्हा सुनाने लग जाता, मगर फिर भी कुछ तो वह कह ही सकता था । वह मेरे सामने गिड़गिड़ा सकता था, रो सकता था मगर उसने तो कुछ भी नहीं किया, वह उठकर बैठ गया और चलने की तैयारी में जगह की सफ़ाई करने लगा। उसने न कोई शिकायत की और न कोई फ़रियाद। कैसा अजीब आदमी है? इसने हमसे अगर खाना खिलाने की तलब की होती, तो क्या हम उसे खाना न खिला सकते थे, या कहा होता, तो तन ढांकने के लिए दो-एक कपड़े न दे सकते थे ? मगर अब शायद उसे इनसान से इतनी भी उम्मीद बाकी नहीं रही थी। अब तो शायद वह सिर्फ़ इसलिए जी रहा था कि मौत नहीं आती थी और अगर किसी तरह न आई, तो एक रोज खुद जाकर हाथ पकड़ कर उसे खींच लाएगा और फिर उसी घिसे हुए टाट के कफ़न में लपेटकर कोई मेहतर उसे घसीटकर कहीं फेंक आएगा।

कहानी कहने में जितनी देर लगती है, वाकये में उतनी देर नहीं लगती। अब उसने सब बीज इकट्ठे कर लिए थे और उन्हें फेंकने बाहर जा रहा था। इस वक्त मैंने उसे बतलाना जरूरी समझा कि इस तरह किसी के घर में घुस आना ठीक नहीं होता। अब फिर कभी मत आना । मगर अपने ही कानों में मुझे अपने शब्द खोखले सुनाई पड़े।

वह लौटा और अपना टाट उठाकर चला गया। मैं हक्का-बक्का उसे देखता रहा। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा था कि मुझे क्या करना चाहिए। तब तक वह काफ़ी दूर चला गया था। मैंने माया से कहा-- "एक कुर्ता-पाजामा तो देते उसे....और हां, एक रुपया भी लेती आना !"

और तब, मैंने भोर के धुंधलके में उस आदमी को आवाज़ दी-- "ओ आदमी ! ओ आदमी !" क्योंकि उसका नाम मुझे नहीं मालूम था।

वह लौट पड़ा। माया ने लाकर एक कुर्ता-पाजामा और एक रुपया मुझे दिया और मैंने बाहर निकलकर दोनों चीज़े उसके हाथ में दे दीं। दोनों कपड़े और रुपया लेकर भी उसने कुछ नहीं कहा, कुछ भी नहीं ! वह जैसे आया था, वैसे ही चला गया। मैं कुछ देर तक उसे देखता रहा और फिर पता नहीं क्यों, मुझे बहुत ज़ोर से रुलाई छूटी और मुझे अपनी आँखें नम होती मालूम हुई और फिर अच्छी तरह आँसू बहने लगे। मुझे खुद अपनी इस हालत पर बड़ी हैरानी थी, क्योंकि मैं किसी माने में बहुत नर्म दिल का आदमी नहीं हूं। मगर फिर भी, हर बार जैसे एक लहर-सी उठती थी, जो आकर मुझसे टकराती थी और मुझे भिगो कर चली जाती थी। माया तब तक भीतर दरवाज़े पर ही खड़ी थी और मैं नहीं चाहता था कि वह या कोई ही मेरे इन बचकाने आंसुओं को देखे। मैं बाहर सड़क पर निकल गया और घूमने लगा। मगर मैं घूम नहीं रहा था-रो रहा था, जैसे रह-रह कर कोई मेरे दिल को मसोस रहा हो।

माया जाने को हुई, तो उसने पुकार कर कहा-‘भीतर चलो न, वहां क्या कर रहे हो ?"

अपनी आवाज़ की भर्राहट को छिपाने की कोशिश करते हुए मैंने कहा- "अब नींद थोड़े ही आएगी, अच्छी तरह सबेरा हो गया है।"

और, फिर कोई पन्द्रह मिनट तक मैं वहीं घूम-घूम कर रोता रहा : शायद बरसों बाद मैं इस तरह रोया था। मुझे अपने ऊपर कुछ हैरानी भी मालूम हो रही थी, कुछ शर्म भी आ रही थी और यह सोच कर कुछ खुशी भी हो रही थी कि मेरा दिल अभी मरा नहीं है। मैं नहीं जानता, हो सकता है, इसीलिए मैंने अपने अांसुओं को कुछ ढील भी दे रखी हो। मगर इतना मैं जानता हूँ कि वे बेईमान आँसू न थे -- शायद उस आदमी के दिल की घुटन थी, जो इस वक्त मेरे आंसुओं की शक्ल में बाहर आ रही थी; क्योंकि मुझे लगता है कि जैसे कभी आग के एक ही गोले से छिटककर यह सारी सृष्टि बनी थी, वैसे ही किसी कुम्हार ने गीली मिट्टी के एक ही गोले से सब इनसानों के दिल भी बनाए थे और उनका साज़ कुछ इस तरह मिलाकर रख दिया था कि एक का दर्द दूसरे के सीने में जाकर बजने लगता है।

- अमृतराय

[श्रेष्ठ हिंदी कहानियाँ, 1968]

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