देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
प्रेमचंद का अंतिम दिन (कथा-कहानी)     
Author:भारत-दर्शन संकलन | Collections

आठ अक्तूबर । सुबह हुई। जाडे की सुबह । सात-साढ़े सात का वक्त होगा ।

मुँह धुलाने के लिए शिवरानी गरम पानी लेकर आयी। मुंशीजी ने दाँत माँजने के लिए खरिया मिट्टी मुँह में ली, दो-एक बार मुँह चलाया और दाँत बैठ गये। कुल्ला करने के लिए इशारा किया पर मुँह नही फैल सका। पत्नी ने उनको जोर लगाते देखा, कुछ कहने के लिए......

पाँव तले ज़मीन खिसक गयी। कान में कोई कुछ कह गया।

घबराकर बोली - कुल्ला भी नही कीजिएगा क्या ?

वहाँ तो उल्टी साँस चल रही थी । नवाब ने बेबस आँखों से रानी को देखा और दम उखड़ते-उखड़ते, रुकती-अटकती, कुएँ के भीतर से आती हुई-सी, भारी, गूंजती आवाज़ में डूबते आदमी की तरह पुकारा - रानी.....

रानी लपकी - कि शायद मेरे हाथ से कुल्ला करना चाहते है। रामकिशोर ने बीच में ही पकड लिया - बहन, अब वहाँ क्या रखा है !

लमही खबर पहुँची। बिरादरीवाले जुटने लगे ।

अरथी बनी। ग्यारह बजते-बजते बीस-पचीस लोग किसी गुमनाम आदमी की लाश लेकर मणिकर्णिका की ओर चले ।

रास्ते में एक राह चलते ने दूसरे से पूछा - के रहल ?

दूसरे ने जवाब दिया - कोई मास्टर था !


उधर, बोलपुर में, रवीन्द्रनाथ ने धीमे से कहा - एक रतन मिला था तुमको, तुमने खो दिया ।

[ 'प्रेमचंद क़लम का सिपाही' से ]

प्रस्तुति - रोहित कुमार

 

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश