देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
कप्तान (कथा-कहानी)     
Author:शिवरानी देवी प्रेमचंद

ज़ोरावर सिंह की जिस दिन शादी हुई, बहू आई, उसी रोज़ ज़ोरावर सिंह की कप्तानी को जगह मिली। घर में आकर बोला ज़ोरावर अपनी बीवी से -- 'तुम बड़ी भाग्यवान हो। कल तुम आई नहीं, आज मैं कप्तान बन बैठा ।'

उसकी बीवी का नाम सुभद्रा; सुभद्रा यह सब सुन करके ख़ुश होने के बजाय चिन्तित हो गई।
ज़ोरावर--तुम तो ख़ुश नहीं मालूम हो रही हो।

सुभद्रा-- जिसकी लोग ख़ुशी कहते हैं, उस ख़ुशी के अन्दर गम भी तो छिपा रहता है।

ज़ोरावर--कैसा ग़म ! इस उमंग के दिनों में ग़म का नाम ही क्या ! बहू आई शाम को, सुबह अच्छा ओहदा ! इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात मेरे लिये और तुम्हारे लिये और हो ही क्या सकती है?

सुभद्रा--ज़रा ठण्डे दिल से सोचो कि ये दोनों ख़ुशी की बातें नहीं हैं। मेरा आना यह भी एक तरह की ज़िम्मेदारी, तुम्हारी-मेरी दोनों की; और जो आपको ओहदा मिला इसमें भी कर्तव्य का अपना बंधन । पूरे उतरे तो सब ठीक ही ठीक है, कच्चे उतरे तो और मिट्टी पलीत हो जाएगी।

ज़ोरावर--तुम तो न मालूम क्या-क्या बातें बक गई, मेरी समझ में ख़ाक-पत्थर कुछ भी नहीं आया और ये तो बुढ़ापे के चरखें हैं सब । जवान आदमी कभी यह नहीं सोचता। क्या कर्तव्य और काम भी कोई चीज़ है।

सुभद्रा--यह तुम्हारी समझ में नहीं आयेगा। इसको बारीकी से, जो दोनों के विषय में सोचो, तो ये दोनों महँगे सौदे हैं।

ज़ोरावर--मैं यह सब नहीं सुनना चाहता तुम्हारे मुँह से। इस उम्र में कोई इन बातों को सुनना गवारा नहीं करता । मैं सच कहता हूँ तुमसे, मैंने अभी अम्मा से यह नहीं बताया कि मुझे आज यह ओहदा मिला है। मैं तो सीधा तुमको आया यह ख़ुशख़बरी देने ।

सुभद्रा--तो बता आइये माताजी से भी, बता आइए।

‘अच्छा, अच्छा, मैं जाता हूँ। तुम्हारे पास तो बहुत उपदेश सुने ! देखू, अम्मा भी उपदेश सुनाती हैं।'
सुभद्रा--अम्माजी सुनायें तो मुझसे कहीं ज़्यादा सुना सकती हैं, और मुझसे कहीं ज़्यादा दुनिया का ज्ञान उन्होंने पाया है।

ज़ोरावर--पूरे उम्र में तो मैं भी तुमसे ज़्यादा हूँ।

सुभद्रा--जो चीज़ तुम पुरुषों को नहीं मिली, क्या अब हमसे उधार लोगे ? तुम दूसरे धातु के बने हुए हो।

ज़ोरावर--अच्छा मैं जाता हूँ।

उठ करके ज़ोरावर माँ के पास पहुँचा। माँ ने उस समय गाना करवाने के लिए गानेवालियों को बुला रखा था। माँ के पैर छूते हुए बोला--अम्मा तुम्हें खुशख़बरी सुनाता हूँ । मैं कप्तान हो गया ।

माँ, बेटे की सीने से लगाकर बोली -बेटा, जो काम तुमको सौंपा गया है, ईश्वर करे उसमें तुम सफल हो ।

'सफल' शब्द सुनकर ज़ोरावर अपने मन में उसे दोहराने लगा। अपने दिल से पूछता है, क्या इस शब्द में, जो सुभद्रा ने कहा है, क्या माँ के दिल में भी वही बात है ? यह 'सफल' शब्द.... अगर मैं माँ से पूछने लगूं कि यह 'सफल' लफ्ज़ आपने क्यों कहा ? क्या आपके मन में भी कुछ सफल -विफल होने का रहस्य है ? ज़रूर इन्होंने भी इसमें कुछ माने-मतलब लगाये हैं। अगर पूछता हूँ तो वे भी मुझे उपदेश देने लगेंगी । मगर कुछ बोला नहीं । (माँ से ) अम्मा मुझे कल ही तो जाना है।

कल का शब्द सुनकर माँ कुछ दहल-सी गई। अभी कल ही तो बहू आई है घर में और कल सुबह यह चला जाएगा ! माँ पर जैसे एक बोझ-सा लद गया।

रात को जब सुभद्रा के पास पहुँचा, बोला--कल तो मुझे जाना है। एक बात का मुझे अफ़सोस है कि मैं कल ही चला जाऊंगा तुम्हें छोड़कर ! यह बात मुझे तकलीफ़ देती है।

सुभद्रा--सिपाही और कप्तान के लिए यह सोचना बिलकुल ग़लत बात है, क्योंकि उसकी डयूटी जो है। जहाँ ओहदा मिलता है, ओहदे के सामने मौत सर पर रहती है। जिस ख़ुशी से आप ओहदे को गले से लगाते हैं, उसी तरह ख़ुशी से कप्तान और सिपाही की मौत को भी गले से लगाना चाहिये। कर्तव्य के सामने विमुख होना यह बहादुर का काम नहीं है। फिर कैसी माँ, कैसी बीवी और कैसी दुनिया !

उसको तो जो काम मिला है, ड्यूटी- ड्यूटी को ठीक-ठीक अदा करना चाहिये । कहीं ज़्यादा बेहतर है कि भागा हुआ सिपाही मौत को गले से लगाये । उसके लिए तो दो ही रास्ते हैं, या तो विजय, या मौत ।

ज़ोरावर का चेहरा उतर गया । अभी से ऐसी बात ! बोला--क्या मैं मौत के मुँह में जा रहा हूँ ? आज पचास बरस से सिपाही कप्तान मुफ्त का खाते हैं सरकार के यहाँ । वहाँ न मौत है न कुछ । मौत का निशान भी नहीं है।

सुभद्रा-अगर लड़ाई नहीं है, झगड़ा नहीं है, मुफ्त की तनख़्वाह ही खानी है, तब तो कोई बात नहीं है। अगर हो तो डयूटी आपकी यही करती है, या तो विजय, या मौत। दूसरा रास्ता नहीं आपके लिये ।
ज़ोरावर--वह तो वक्त आने की बात है। आज तो इसका कोई ज़िक्र ही नहीं है और मान लो मैं लड़ाई में काम आऊँ?...

सुभद्रा--उस वक्त मैं सर ऊंचा करके चलूँगी। हाँ, आप भाग आयेंगे उस वक्त मैं आपकी सूरत देखना गवारा नहीं कर सकती ।

रात इस गपशप में बीती ।

तब तक सुबह हो जाती है। और जाने का समय ।

दरवाज़े पर आदमी खड़े हैं और जाने की पूरी तैयारी है। ज़ोरावर बार-बार अन्दर जाता है....और बाहर निकलने का नाम भी नहीं लेता है।

सुभद्रा --समय हो गया, गाड़ी का समय हो गया ।

ज़ोरावर--ये कम्बखत तो जैसे यम के दूत की तरह सर पर सवार हो जाते हैं।उसी समय वह जाने को जब खड़ा होता है सुभद्रा स्वयं नमस्कार देती है और आशीर्वाद देती है-जाओ और विजयी होकर आओ !

ज़ोरावर की आँखों में आंसू छलछला आये। बाहर माँ खड़ी, दही और चावल माथे से लगाते हुए बोली-जाओ बेटा, भगवान् तुम्हारा भला करे।

मुंह से ज़ोरावर के कोई आवाज नहीं निकली और चुपके से चला गया ।

एक महीना रहने के बाद ज़ोरावर फिर आया । वहाँ कोशिश करके अपने भाई के लिए जगह दिलवाई । माँ से बोला-इसको भी जाने दो, बलवान को भी।

माँ-ले जाओ, बेटा, जाओ । बलवान तो तुम्हारे जाने के बाद ही से सोच रहा था । कई बार कहा था ।

'मगर साहब मेरे काम से बड़े खुश हैं नहीं तो यह जगह किसी को देते थोड़े ही जल्दी।"

यह बात सुनकर सुभद्रा मुस्कराई। वह मुस्कराहट जैसे एक व्यङ्ग की थी ।

ज़ोरावर-तुम्हारी हँसने की ख़ास आदत है । शायद तुम मेरी बातों पर हँस रही हो ।

सुभद्रा-मैं तुम्हारी बातों पर नहीं हँस रही, मैं तुम्हारी नादानी पर हँस रही हूँ।

'तुम मुझसे उम्र में कम हो, सुभद्रा । तुमको मेरी नादानी नहीं देखनी है।"

सुभद्रा-स्वारथ जो है आदमी में, वह आदमी को अन्धा बना देता है । मुझे उस अन्धेपन पर हँसी आ रही है।

ज़ोरावर - तुम तो जैसे हम लोगों पर उधार खाये बैठी हो ।

सुभद्रा-स्वारथ छोड़कर कोई बात करे, तो उसको सब साफ़ दिखाई देता है। स्वारथ लेकर जेा केाई कुछ बात करता है तो वह उसकी अन्धा बना देता है। यह बात आपको मालूम नहीं है शायद ।

उन्हीं के पास बलवान भी खड़ा था । भावज की ये बातें सुनकर बेाला-भाभी, जो चीजें हम लोगों को मिली हैं वह आपको नहीं मिलीं, और जो चीज़ें आपको मिली हैं वह हमको नहीं मिलीं । आप लोगों का काम है भावुकता की सोचना और हिन्दी की चिन्दी निकालना। हम लोगों का बहादुरी का काम है। हम लोगों को लड़ना आता है और विजय करना आता है। न उस जगह हम कर्तव्य सोचने जाते हैं, न कर्म । जो ड्यूटी भैया को मिली है उसको आप देखें तो घबरा जायें । आप लोगों को घर में बैठे-बैठे हिन्दी की चिन्दी निकालना आता है।

सुभद्रा- जब करना तो कर लेना, दुनिया देख लेगी । कहने से लाभ ही क्या है !

बलवान-हाँ, हाँ, देख लीजियेगा।

सुभद्रा चुप ।

‘जिस रोज़ विजय करके आयेंगे, उस रोज़ मैं गर्व से फूल जाऊँगी।'

दोनों भाई दूसरे रोज़ वापस गये।

इन लोगों केा गये तीन महीने भी नहीं होने पाये थे कि बर्मा में जापानियों के गोले गिरने लगे। लड़ाई के पहले ही मोर्चे पर जानेवाली फ़ौज में पहले बलवान गया। लड़ाई के वक़्त सिपाही जो गिरते हैं उनमें जिनके ज़िन्दा रहने की कुछ आशा है, उन्हें तो उठा करके ले जाते हैं, जिनको समझते हैं कि ये महीने दो महीने लेंगे उनको घोड़ों से और टापों से रौंद देते हैं।
बलवानसिंह गिरता है। ठीक निशाना लगता है। ज़ोरावर दूर खड़ा है। दूर है, मगर जैसे ही उसे बलवान के गिरने का मालूम होता है, वैसे ही ज़ोरावर बलवान की लाश के लिए लपकता है और उठाए हुए भागता है, कंधे पर लादकर । इधर देखता है न उधर देखता है। भागता है दरिया की तरफ़, जिसे कि पार करके उसे जाना है। रात का समय।

माझी पूछता है- तू कौन है !

ज़ोरावर- मैं हूँ कप्तान ।

- क्या तुम फ़ौज से भाग रहे हो ? क्या मौत के डर से भाग रहे हो ! रात को पार करने का सरकारी हुक्म नहीं है।

ज़ोरावर- मैं भाग नहीं रहा, माँझी । मेरी माँ की अमानत मेरा भाई था । वह लड़ाई में काम आया । उसी की लाश देने जा रहा हूँ ।

माझी- सरकारी हुक्म लाओ । तुमको एकाएक करके यहाँ हुक्म नहीं है भागने का ।

ज़ोरावर- मैं भाग नहीं रहा । मुझे सिर्फ़ इसकी लाश को पहुँचा आना है।

माझी- जो अमानत थी, वह थी । लाश थोड़े ही अमानत है । लाश को लेकर तुम्हारी माँ क्या करेगी ! ये जितने मरनेवाले मर रहे हैं, ये सभी तो अमानतें हैं। सभी तो माँ से पैदा होते हैं। बगैर माँ के कोई है ! माताओं ने तो दे दिया, बेच दिया- चाँदी के टुकड़ों पर और कागज़ के चिन्हों पर । आज तुम लाश लिये जा रहे । कल तुम्हारी यही हालत हुई तो तुम्हारी लाश क्या मैं पहुँचाने जाऊँगा ?

ज़ोरावर- कुछ नहीं, मैं तुमसे आज आरज़ू करता हूँ। मैं कल सुबह आ जाऊँगा। मैं कभी आरज़ू नहीं करता। सिफ़ माँ की इस अमानत के लिए आरज़ू कर रहा हूँ। क्या तुम मेरी इतनी आरज़ू नहीं सुनोगे ?

माझी- वादा करते हो, कल सुबह आ जाओगे ?

जोरावर- हाँ, वादा करता हूँ मैं कल आ जाऊँगा ।

--जाओ। चलो मैं किश्ती खोले देता हूँ।

माझी किश्ती खेलता है । पार उतारता है । जोरावर लाश लिए हुए 8 बजे दिन घर पहुँचा । माँ के सामने रख के- माँ यह तुम्हारी अमानत है ।

माँ को उस समय रोना नहीं आया । बोली- एक दिन, बेटे, सबकी माओं की अमानतें वापिस आयेंगी । यह अमानत कहाँ। बलवान था, वीरगति पाई !
कहकर तो आया था ज़ोरावर, कि मैं सुबह आ जाऊँगा मगर घर आने पर उसकी इच्छा नहीं हुई जाने की ।

सुभद्रा से बोला- क्या करूं, मैं अपने वचन से झूठा बना। मुझे नरक मिले, स्वर्ग मैं नहीं चाहता । मैं तुम्हें छोड़कर नहीं जा सकता हूँ। मगर हाँ एक मजबूरी है। मैं घर पर रहने नहीं पाऊँगा । आज तुम्हारे वह शब्द मेरे कान में गूँज रहे हैं जो तुमने कहे थे, कि सिपाही और कप्तान के लिये--या तो विजय या मौत ! इस लड़ाई की हालत देखकर, विजय तो हमको क्या मिलेगी--शायद मौत ही मिले।सुभद्रा-विजय ! विजय बड़ी मूल्यवान चीज़ है। अब यह देखना है कि उसका सेहरा किसके माथे पर बँधता है-- मेरे या आपके माथे। यह आप क्यों सोचते हैं कि विजय का सेहरा आप ही लोगों के सर पर चढ़ेगा। अगर तुम मेरे प्रेम में पड़ करके छिपना चाहते हो --तो चलो, बहादुर की मौत तुम भी मरना, मैं भी मरूं !

ये शब्द सुभद्रा के, माँ के भी कान में पड़े - 'मैं तुम्हारे साथ चलू !'

माँ--अरे बेटा, यह कायरों का काम है । आज यहाँ तू सरकारी नौकर है तो यह काम कर रहा है । कल दुश्मन चढ़ आये तो क्या हमारी लोगों की इज्ज़त बाक़ी रह जायेगी ? आज तो एक सरकार है सर पर । उसके रुपये देने से तुम सब काम करने गये । अगर हमारी सरकार होती तो तुम सब के सब बगैर रुपये के, बगैर सहारे के, अपने-अपने घर से निकलते। और कोई समय आयेगा जब तुम अपने-अपने घर से निकलोगे । छिपने का नाम भी सुनके मुझे हँसी मालूम होती है।

ज़ोरावर--माँ, कैसी बात करती हो ! एक की लाश देखकर के भी तुम्हें अभी तस्कीन नहीं हुई। वहाँ, माँ, लाशों को तुम देखो तो पता चले । वहाँ लाशों से बच के निकलना मुश्किल है ।

माँ--मैं..., ख़ैर, यह लड़ाई तो मैंने देख ली। मगर कहो तो मैं चलू । मैं और बहू दोनों चलें । ये शैतान जर्मनी और जापान अगर मुल्क में आ जायेंगे, तुम समझते हो, तुम्हारी बहू-बेटियों की ख़ैरियत है ! उस वक़्त तुम्हें जो तकलीफ़ होगी अपनी हालत देखकर और हम लोगों की दुर्दशा-- तो क्या उससे भी मौत मुश्किल है ? फिर मैं तुम्हें आज अपने आँचल के नीचे, गोदी के नीचे, छिपा लूँ? वह माताओं के लाल नहीं हैं ?

माँ की फटकार से और सुभद्रा की लताड़ से ज़ोरावर के बल आया ।

सुभद्रा नहीं मानी, साथ में गई । दोनों साथ-साथ चले जाते हैं, गुम-सुम, न कोई किसी से बोलता है न चालता है। जैसे अपरिचित हों कोई। जब दरिया के किनारे पहुँचे, माझी ने पूछा--कप्तान साहब, आप आ गये ! उस समय ज़ोरावर के दिल में महान् शक्ति आई । जैसे सोये से कोई जागा हो।
माझी--यह तुम्हारे साथ स्त्री कौन है ?

जोरावर- यह मेरी स्त्री है ।

--यह गुलाब का ऐसा फूल क्यों लाये ? यहाँ तो नर-संहार है ।

सुभद्रा--नर-संहार है तो क्या यहाँ कोई घबरानेवाला है। फूल अगर फूला है तो कुम्हलाने ही के लिए तो । आदमी ने अगर जन्म लिया है तो मरने ही के लिए तो । कुत्तों की मौत से बहादुरों की तरह मरना फिर भी अच्छा है ।

इतना कहते हुए सुभद्रा मुस्करा उठी । सुभद्रा की उस हँसी में व्यंग की हँसी नहीं थी, बल्कि कर्तव्य की हँसी थी;---'शायद मैं भी कुछ करके जाऊँ ।'

जब पार आये, कप्तान अपने ख़ेमे में गया । सुभद्रा साथ में। जब वह मैदान में गया, जोरावर सिंह--सुभद्रा भी उसी के कपड़े पहनकर उसके पीछे साथ में गई । चार रोज़ तक, जब जाता था तब वह साथ में रहती थी।

पाँचवे रोज़ जोरावर सिंह की बारी थी, सुभद्रा ने गिरते देखा । सुभद्रा ने झुककर लाश उठाई। अपने ख़ेमे में ले जाकर वहाँ उसे चूमा । लाश थी निर्जीव । उस समय उसके मुंह से निकला--हाँ, तुम विजयी हो ! तुमने वादा पूरा किया । अभी थोड़ी देर में मेरी भी तो यही हालत होगी ।

उसी माझी के पास गई ।

-- माझी ! यह मेरी लाश है। पता देती हूँ। माँजी को दे आओ ! उनकी अमानत थी ।

 

- शिवरानी देवी 'प्रेमचन्द'  [ भारत-दर्शन संकलन]

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