जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 
अतिथि! तुम कब जाओगे  (विविध)     
Author:शरद जोशी | Sharad Joshi

तुम्हारे आने के चौथे दिन, बार-बार यह प्रश्न मेरे मन में उमड़ रहा है, तुम कब जाओगे अतिथि! तुम कब घर से निकलोगे मेरे मेहमान!

तुम जिस सोफे पर टाँगें पसारे बैठे हो, उसके ठीक सामने एक कैलेंडर लगा है जिसकी फड़फड़ाती तारीखें मैं तुम्हें रोज दिखा कर बदल रहा हूँ। यह मेहमाननवाजी का चौथा दिन है, मगर तुम्हारे जाने की कोई संभावना नजर नहीं आती। लाखों मील लंबी यात्रा कर एस्ट्रॉनॉट्स भी चाँद पर इतने नहीं रुके जितने तुम रुके। उन्होने भी चाँद की इतनी मिट्टी नहीं खोदी जितनी तुम मेरी खोद चुके हो। क्या तुम्हें अपना घर याद नहीं आता? क्या तुम्हें तुम्हारी मिट्टी नहीं पुकारती?

जिस दिन तुम आए थे, कहीं अंदर ही अंदर मेरा बटुआ काँप उठा था। फिर भी मैं मुस्कराता हुआ उठा और तुम्हारे गले मिला। मेरी पत्नी ने तुम्हें सादर नमस्ते की। तुम्हारी शान में ओ मेहमान, हमने दोपहर के भोजन को लंच में बदला और रात के खाने को डिनर में। हमने तुम्हारे लिए सलाद कटवाया, रायता बनवाया और मिठाइयाँ मँगवाईं। इस उम्मीद में कि दूसरे दिन शानदार मेहमाननवाजी की छाप लिए तुम रेल के डिब्बे में बैठ जाओगे। मगर, आज चौथा दिन है और तुम यहीं हो। कल रात हमने खिचड़ी बनाई, फिर भी तुम यहीं हो। आज हम उपवास करेंगे और तुम यहीं हो। तुम्हारी उपस्थिति यूँ रबर की तरह खिंचेगी, हमने कभी सोचा न था।

सुबह तुम आए और बोले, "लॉन्ड्री को कपड़े देने हैं।" मतलब? मतलब यह कि जब तक कपड़े धुल कर नहीं आएँगे, तुम नहीं जाओगे? यह चोट मार्मिक थी, यह आघात अप्रत्याशित था। मैंने पहली बार जाना कि अतिथि केवल देवता नहीं होता। वह मनुष्य और कई बार राक्षस भी हो सकता है। यह देख मेरी पत्नी की आँखें बड़ी-बड़ी हो गईं। तुम शायद नहीं जानते कि पत्नी की आँखें जब बड़ी-बड़ी होती हैं, मेरा दिल छोटा-छोटा होने लगता है।

कपड़े धुल कर आ गए और तुम यहीं हो। पलंग की चादर दो बार बदली जा चुकी और तुम यहीं हो। अब इस कमरे के आकाश में ठहाकों के रंगीन गुब्बारे नहीं उड़ते। शब्दों का लेन-देन मिट गया। अब करने को को चर्चा नहीं रही। परिवार, बच्चे, नौकरी, राजनीति, रिश्तेदारी, पुराने दोस्त, फिल्म, साहित्य। यहाँ तक कि आँख मार-मार कर हमने पुरानी प्रेमिकाओं का भी जिक्र कर लिया। सारे विषय खत्म हो गए। तुम्हारे प्रति मेरी प्रेमभावना गाली में बदल रही है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि तुम कौन सा फेविकॉल लगा कर मेरे घर में आए हो?

पत्नी पूछती है, "कब तक रहेंगे ये?" जवाब में मैं कंधे उचका देता हूँ। जब वह प्रश्न पूछती है, मैं उत्तर नहीं दे पाता। जब मैं पूछता हूँ, वो चुप रह जाती है। तुम्हारा बिस्तर कब गोल होगा अतिथि?

मैं जानता हूँ कि तुम्हें मेरे घर में अच्छा लग रहा है। सबको दूसरों के घर में अच्छा लगता है। यदि लोगों का बस चलता तो वे किसी और के घर में रहते। किसी दूसरे की पत्नी से विवाह करते। मगर घर को सुंदर और होम को स्वीट होम इसीलिए कहा गया है कि मेहमान अपने घर वापिस लौट जाएँ।

मेरी रातों को अपने खर्राटों से गुँजाने के बाद अब चले जाओ मेरे दोस्त! देखो, शराफत की भी एक सीमा होती है और गेट आउट भी एक वाक्य है जो बोला जा सकता है।

कल का सूरज तुम्हारे आगमन का चौथा सूरज होगा। और वह मेरी सहनशीलता की अंतिम सुबह होगी। उसके बाद मैं लड़खड़ा जाऊँगा। यह सच है कि अतिथि होने के नाते तुम देवता हो, मगर मैं भी आखिर मनुष्य हूँ। एक मनुष्य ज्यादा दिनों देवता के साथ नहीं रह सकता। देवता का काम है कि वह दर्शन दे और लौट जाए। तुम लौट जाओ अतिथि। इसके पूर्व कि मैं अपनी वाली पर उतरूँ, तुम लौट जाओ।

उफ! तुम कब जाओगे, अतिथि!


- शरद जोशी


Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश