देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
होली का मज़ाक | यशपाल की कहानी  (कथा-कहानी)     
Author:यशपाल | Yashpal

'बीबी जी, आप आवेंगी कि हम चाय बना दें!'' किलसिया ने ऊपर की मंज़िल की रसोई से पुकारा।

''नहीं, तू पानी तैयार कर- तीनों सेट मेज़ पर लगा दे, मैं आ रही हूँ। बाज़ आए तेरी बनाई चाय से। सुबह तीन-तीन बार पानी डाला तो भी इनकी काली और ज़हर की तरह कड़वी. . .। तुम्हारे हाथ डिब्बा लग जाए तो पत्ती तीन दिन नहीं चलती। सात रुपए में डिब्बा आ रहा है। मरी चाय को भी आग लग गई है।'' मालकिन ने किलसिया को उत्तर दिया। आलस्य अभी टूटा नहीं था। ज़रा और लेट लेने के लिए बोलती गईं, ''बेटा मंटू, तू ज़रा चली जा ऊपर। तीनों पॉट बनवा दे। बेटा, ज़रा देखकर पत्ती डालना, मैं अभी आ रही हूँ।''

''अम्मा जी, ज़रा तुम आ जाओ! हमारी समझ में नहीं आता। बर्तन सब लगा दिए हैं।'' सत्रह वर्ष की मंटू ने ऊपर से उत्तर दिया।

ठीक ही कह रही है लड़की, मालकिन ने सोचा। घर मेहमानों से भरा था, जैसे शादी-ब्याह के समय का जमाव हो। चीफ़ इंजीनियर खोसला साहब के रिटायर होने में चार महीने ही शेष थे। तीन वर्ष की एक्सटेंशन भी समाप्त हो रही थी। पिछले वर्ष बड़े लड़के और लड़की के ब्याह कर दिए थे। रिटायर होकर तो पेंशन पर ही निर्वाह करना था। जो काम अब हज़ार में हो जाता, रिटायर होने पर उस पर तीन हज़ार लगते। रिटायर होकर इतनी बड़ी, तेरह कमरे की हवेली भी नहीं रख सकते थे।

पहली होली पर लड़की जमाई के साथ आई थी। बड़ा लड़का आनंद सात दिन की छुट्टी लेकर आया था इसलिए बहू को भी बुला लिया था। आनंद की छोटी साली भी बहन के साथ लखनऊ की सैर के लिए आ गई थी। इंजीनियर साहब के छोटे भाई गोंडा जिले में किसी शुगर मिल में इंजीनियर थे। मई में उनकी लड़की का ब्याह था। वे पत्नी, साली और लड़की के साथ दहेज ख़रीदने के लिए लखनऊ आए हुए थे। खूब जमाव था।

मालकिन ऊपर पहुँची। प्लेटों में अंदाज़ से नमकीन और मिठाई रखी। जमाई ज्ञान बाबू के लिए बिस्कुट और संतरे रखे। साहब इस समय कुछ नहीं खाते थे। उनके लिए थोड़ी किशमिश रखी। किलसिया और सित्तो के हाथ नीचे भेजने के लिए ट्रे में चाय लगाने लगीं।
''अम्मा जी, यह क्या?'' मंटू माँ के बायें हाथ की ओर संकेत कर झल्ला उठी, ''फिर वही डंडे जैसी खाली कलाइयाँ! कड़ा फिर उतार दिया! तुम्हें तो सोना घिस जाने की चिंता खाए जाती है।''
''नहीं मंटू. . .'' माँ ने समझाना चाहा।

''तुम ज़रा ख़याल नहीं करतीं,'' मंटू बोलती गई, ''इतने लोग घर में आए हुए हैं। त्योहार का दिन है। यही तो समय होता है कि कुछ पहनने का और तुम उतार कर रख देती हो. . .।''

मंटू झुँझला ही रही थी कि उसकी चाची, मालकिन की देवरानी लीला नाश्ते में सहायता देने के लिए ऊपर आ गई। उसने भी मंटू का साथ दिया, ''हाँ भाभी जी, त्योहार का दिन है, घर में बहू आई है, जमाई आया है, ऐसे समय भी कुछ नहीं पहना! कलाई नंगी रहे तो असगुन लगता है। सुबह तो चूड़ियाँ भी थीं, कड़ा भी था।''

मालकिन ने नाश्ता बाँटने से हाथ रोककर मंटू से कहा, ''जा नन्हीं, दौड़कर जा, बीचवाले गुसलखाने में देख! सिर धोने लगी थी तो बालों में उलझ रहा था, वहीं उतार कर रख दिया था। जहाँ मंजन-वंजन पड़ा रहता है, वहीं रखा था। लाकर पहना दे!''
''मंटू जी ने धड़धड़ाती हुई नीचे गई। गुसलखाने में देखकर उसने वहीं से पुकारा, ''अम्मा जी, यहाँ कुछ नहीं है।''
मालकिन ने मंटू की बात सुनी तो चेहरे पर चिंता झलक आई। देवरानी से बोलीं, ''लीला, मेरे बाद तुम नहाई थी न। तुमने नहीं देखा! आलमारी में रख दिया था।'' और फिर वहीं बैठे-बैठे मंटू को उत्तर दिया, ''अच्छा बेटी, ज़रा अपने कमरे में तो देख ले! ड्रेसिंग टेबल की दराज़ में देख लेना, कपड़े वहीं पहने थे!''

लीला की बहन कैलाश भी आ गई थी। उसने भी पूछ लिया, ''क्या है, क्या नहीं मिल रहा?''
लीला को भाभी की बात अच्छी नहीं लगी। चेहरा गंभीर हो गया। उसने तुरंत अपनी बहन को संबोधन किया, ''काशो, हम दोनों तो नीचे के गुसलखाने में नहाने गई थीं. . .।''

मालकिन ने देवरानी के बुरा मान जाने की आशंका में तुरंत बात बदली, ''मैं तो कह रही हूँ कि तू वहाँ नहाई होती तो उठाकर सँभाल लिया होता।''

भाभी की बात से लीला को संतोष नहीं हुआ। उसने फिर कैलाश को याद दिलाया, ''काशो, मैं बीच के गुसलखाने में जा रही थी तो किलसिया ने नहीं कहा था कि बहू का साबुन-तौलिया और उसके लिए गरम पानी रख दिया है। आपके बाद तो कुसुम ही नहाई थी। सँभाल कर रखा होगा तो उसी के पास होगा।''

बीच की मंज़िल से फिर मंटू की पुकार सुनाई दी, ''अम्मा जी, यहाँ भी नहीं है, मैंने सब देख लिया है।''

मालकिन ने कैलाश से कहा, ''काशो बहन, तू जा नीचे, मंटू से कह कि ज़रा कुसुम से पूछ ले। उसने सँभाल लिया होगा। मुझे तो यही याद है कि गुसलखाने की आलमारी में रखा था।''

कैलाश नीचे जा रही थी तो लीला ने मालकिन को सुझाया, ''भाभी जी, आपके बाद. . .।'' किलसिया कमरे में आ गई थी। बोली, ''गोल कमरे में चाय दे दी है। बड़े साहब, जमाई बाबू और बड़े भैया तीनों वहीं पी रहें हैं। पकौड़ी लौटा दी है, कोई नहीं खाएगा। बहू जी, उनकी बहन और बड़ी बिटिया भी चाय नीचे मँगा रही हैं।''

''सित्तो क्या कर रही है?'' मालकिन ने किलसिया से पूछा।

''नीचे के गुसलखाने में कपड़े धो रही है।''

किलसिया बहू, उनकी बहन और बड़ी बिटिया के लिए चाय लेकर चली तो बोली, ''आपके बाद कुसुम से पहले किलसिया भी तो गुसलखाने में गई थी। उसी ने तो आपके कपड़े उठाकर कुसुम के लिए साबुन-तौलिया रखा था।'' लीला ने स्वर दबा कर कहा।

''भाभी जी, मैंने आपसे कहा नहीं पर किलसिया की आदत अच्छी नहीं है। पहले भी देखा, इस बार भी दो बार पैसे उठ चुके हैं। परसों मैंने मेज़ की दराज में एक रुपया तेरह आना रख दिए थे, चार आने चले गए। 'इनके' कोट की जेब में रुपए-रुपए के सत्ताइस नोट थे, एक रुपया उड़ गया। कमरे किलसिया ही साफ़ करती है। मैंने सोचा, इतनी-सी बात के लिए मैं क्या कहूँ?''
मालकिन ने समझाया, ''तू भी क्या कहती है लीला! आठ आने, रुपए की बात मैं मानती हूँ, मरी उठा लेती होगी पर पाँच तोले का कड़ा उठा ले, ऐसी हिम्मत कहाँ? मरी बेचने जाएगी तो पकड़ी नहीं जाएगी?''

मंटू और कैलाश ने आकर बताया, ''कुसुम भाभी कहती हैं कि उन्होंने तो कड़ा देखा नहीं।''

सित्तो ने कपड़े धोकर सामने की छत पर लगे तारों पर फैला दिए थे। उसने वहीं से मालकिन को पुकारा, ''बीबी जी, सब काम हो गया, अब हम जाएँ!''

किलसिया फिर ऊपर आ गई थी। वह भी बोली, ''हमें भी छुट्टी दीजिए, त्योहार का दिन है, ज़रा घर की भी सुध लें।''

''जाना बाद में,'' मालकिन बोलीं, ''देखो, हमने सिर धोया था तो कड़ा उतार की गुसलखाने की अलमारी में रख दिया था। पहले ढूंढ़ कर लाओ, तब कोई घर जाएगा।''

किलसिया ने तुरंत विरोध किया, ''हम क्या जाने, हमें तो जिसने जो कपड़ा दिया गुसलखाने में रख दिया। रंग से ख़राब कपड़े उठा कर धोबी वाली पिटारी में डाल दिए। हमने छुआ हो तो हमारे हाथ टूटें।''

सित्तो ने दुहाई दी, ''हाय बीबी जी, हम तो बीच के गुसलखाने में गई ही नहीं। हम तो सुबह से महाराज के साथ बर्तन-भांडे में लगी रहीं और तब से नीचे कपड़े धो रही थीं।''

''ख़ामख़्वाह क्यों बकती हो!'' मालकिन ने दोनों को डाँट दिया, ''मैं किसी को कुछ कह रही हूँ? कड़ा गुस्लख़ाने में रखा था, पाँच तोले का है, कोई मज़ाक तो है नहीं! किसकी हिम्मत है जो पचा लेगा!''


घर भर में चिंता फैल गई। सब ओर खुसुर-फुसुर होने लगी। बात मर्दों में भी पहुँच गई। जमाई ज्ञान बाबू ने पुकारा, ''क्यों मंटा बहन जी, क्या बात है? माँ जी, मंटा ने छिपा लिया है। कहती है पाँच चाकलेट दोगी तो ढूंढ देगी।''

मंटा ने विरोध किया, ''हाय जीजा जी, कितना झूठ! मैंने कब कहा? मैं तो खुद सब जगह ढूँढ़ती फिर रही हूँ।''

बड़ा लड़का आनंद भी बोल उठा, ''अम्मा जी, याद भी है कि कड़ा पहना था। कहीं स्टील वाली अलमारी में ही तो नहीं पड़ा है। तुम घर भर ढूँढ़वा रही हो। तुम भूल भी तो जाती हो। चाभियाँ रखती हो ड्रेसिंग टेबल की दराज में छिपाकर और ढूँढ़ती हो रसोई में।''

मालकिन ने जीना उतरते हुए बेटे को उत्तर दिया, ''तुम भी क्या कह रहे हो? कल शाम लीला के साथ दाल धो रही तो बायें हाथ से घड़ी खोल कर रख दी थी। मंटू ने शोर मचाया,खाली कलाई अच्छी नहीं लगती। वही घड़ी नीचे रखकर कड़ा ले आई थी।''

बड़ी लड़की ने माँ का समर्थन किया, ''क्या कह रहे हो भैया, सुबह भी कड़ा अम्मा जी के हाथ में था। हमने खुद देखा है।''

कैलाश ने भी वीणा का समर्थन किया, ''सुबह मिश्रानी जी के यहाँ गई थीं, तब भी कड़ा हाथ में था। मिश्रानी जी ने नहीं कहा था कि बहुत दिनों बाद पहना है!''

सित्तो ने दोनों गुसलखाने अच्छी तरह देखे। फिर महाराज के साथ रसोई में सब जगह देख रही थी। किलसिया सब कमरों में जा-जाकर ढूंढ़ रही थी। न देखने लायक जगह में भी देख रही थी और बड़बड़ाती जा रही थी, ''बीबी जी चीज़-बस्त खुद रख कर भूल जाती हैं और हम पर बिगड़ा करती हैं।''

बात घर में फैल गई थी। बड़े साहब और छोटे साहब ने भी सुन लिया था। दोनों ही इस विषय में जिज्ञासा कर चुके थे। छोटे साहब भाभी से अंग्रेज़ी में पूछ रहे थे, ''आपके नहाने के बाद नौकरों में से कोई घर के बाहर गया था या नहीं?'' सभी सहमे हुए थे। स्त्रियाँ, लड़कियाँ सब आँगन में इकट्ठी हो गई थीं। दबे-दबे स्वर में नौकरों के चोरी लगने के उदाहरण बता रही थीं। अब मालकिन भी घबरा गईं थीं। देवरानी ने उनके समीप आकर फिर कहा, ''देखा नहीं भाभी, किलसिया क़समें तो बहुत खा रही थी पर चेहरा उतर गया है।''

''यहाँ आकर तो देखिए!'' किलसिया ने बड़े साहब के कमरे से चिक उठाकर पुकारा।

''क्यों, क्या है?'' मंटा और वीणा ने एक साथ पूछ लिया।

''हम कह रहे हैं, यहाँ तो आइए!'' किलसिया ने कुछ झुँझलाहट दिखाई। वीणा और मंटा उधर चली गईं।


दोनों बहनें कमरे से बाहर निकलीं तो मुँह छिपाए दोहरी हुई जा रही थीं। हँसी रोकने के लिए दोनों ने मुँह पर आँचल दबा लिए थे।

किलसिया कमरे से निकली तो भवें चढ़ाकर ऊँचे स्वर में बोल उठीं, ''रात साहब के तकिये के नीचे छोड़ आईं। घर भर में ढुँढ़ाई करा रही हैं।''

''पापा के तकिये के नीचे।'' मंटा ने हँसी से बल खाते हुए कह ही दिया।

लीला, कुसुम, कैलाश, नीता सबके चेहरे लाज से लाल हो गए। सब मुँह छिपा कर फिस-फिस करती इधर से उधर भाग गईं।

मालकिन का चेहरा खिसियाहट से गंभीर हो गया। अवाक निश्चल रह गईं। वीणा से ज्ञान बाबू ने अर्थपूर्ण ढंग से खाँस कर कहा, ''कड़ा मिलने की तो डबल मिठाई मिलनी चाहिए।''

छोटे बाबू से भी रहा नहीं गया, बोल उठे, ''भाभी, क्या है?''

गोल कमरे से बड़े साहब की भी पुकार सुनाई दी, ''मिल गया, मंटू कहाँ से मिला है?''

मंटू मुँह में आँचल ठूँसे थी, कैसे उत्तर देती?

छोटे साहब फिर बोले, ''भाभी, भैया क्या पूछ रहे हैं?''

मालकिन खिसियाहट से बफरी हुई थीं, क्या बोलतीं?

लीला ने हँसी दबाकर भाभी के काम न में कहा, ''देखा चालाक को, कहाँ जाकर रख दिया। तभी ढूँढ़ती फिर रही थी।''

ज़ेवर चोरी की बात पड़ोसी मिश्रा जी के यहाँ भी पहुँच गई थी। मिश्राइन जी ने आकर पूछ लिया, ''मंटू की माँ, क्या बात है, क्या हुआ?''

''कुछ नहीं, कुछ नहीं।'' मालकिन को बोलना पड़ा, ''ख़ामख़्वाह शोर मचा दिया।''

कुसुम से रहा नहीं गया। अपने कमरे से झाँक कर बोली, ''ताई जी, किलसिया ने अम्मा जी के साथ होली का मज़ाक किया है।''

-यशपाल

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