देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
पत्नी (कथा-कहानी)     
Author:जैनेन्द्र कुमार | Jainendra

शहर के एक ओर तिरस्कृत मकान। दूसरा तल्ला, वहां चौके में एक स्त्री अंगीठी सामने लिए बैठी है। अंगीठी की आग राख हुई जा रही है। वह जाने क्या सोच रही है। उसकी अवस्था बीस-बाईस के लगभग होगी। देह से कुछ दुबली है और संभ्रांत कुल की मालूम होती है।

एकाएक अंगीठी में राख होती आग की ओर स्त्री का ध्यान गया। घुटनों पर हाथ देकर वह उठी। उठकर कुछ कोयले लाई। कोयले अंगीठी में डालकर फिर किनारे ऐसे बैठ गई मानो याद करना चाहती है कि अब क्या करुँ? घर में और कोई नहीं और समय बारह से ऊपर हो गया है।

दो प्राणी घर में रहते हैं-पति और पत्नी। पति सवेरे से गए हैं कि लौटे नहीं और पत्नी चौके में बैठी है।

सुनन्दा सोचती है- नहीं, सोचती कहां है? असल-भाव से वह तो वहां बैठी ही है। सोचने को है तो यही कि कोयले न बुझ जाएं।

...वे जाने कब आ जाएंगे? एक बज गया है। कुछ हो, आदमी को अपनी देह की फिक्र करनी चाहिए। ...और सुनन्दा बैठी है। वह कुछ कर नहीं रही है। जब वे आएंगे तब रोटी बना देगी। वे जाने कहां-कहां देर लगा देते है। और कब तक बैठूं?  मुझसे नहीं बैठा जाता। कोयले भी लहक आए हैं। और उसने झल्लाकर तवा अंगीठी पर रख दिया। नहीं, अब वह रोटी बना ही देगी। उसने खीझकर जोर से आटे की थाली सामने खींच ली और रोटी बेलने लगी। थोड़ी देर बाद उसने जीने पर पैरों की आहट सुनी। उसके मुख पर कुछ तल्लीनता आई। क्षण-भर वह आभा उसके चेहरे पर रहकर चली गई और वह फिर उसी भांति काम में लग गई।

कालिंदीचरण पति आए। उनके पीछे-पीछे तीन और उनके मित्र भी आए। ये आपस में बातें करते आ रहे थे और खूब गर्म थे। कालिंदीचरण अपने मित्रों के साथ सीधे अपने कमरे में चले गए। उनमें बहस छिड़ी थी। कमरे में पहुंचकर रुकी बहस फिर छिड़ गई। ये चारों व्यक्ति देशोद्धार के संबंध में कटिबद्ध हैं। चर्चा उसी सिलसिले में चल रही है। भारतमाता को स्वतंत्र कराना होगा- और नीति-अनीति हिंसा-अहिंसा को देखने का यह समय नहीं है। मीठी बातों का परिणाम बहुत देखा। मीठी बातों से बाघ के मुंह से अपना सिर नहीं निकाला जा सकता। उस वक्त बाघ मारना ही एक इलाज है। आतंक! हां, आतंक। हमें क्या आतंकवाद से डरना होगा? लोग हैं, जो कहते हैं! आतंकवादी मूर्ख हैं, वे बच्चे हैं। हां, वे हैं बच्चे और मूर्ख। उन्हें बुजर्गी और बुद्धिमानी नहीं चाहिए। हमें नहीं अभिलाषा अपने जीने की। हमें नहीं मोह अपने बाल-बच्चों का। हमें नहीं गर्ज धन-दौलत की। तब हम मरने के लिए आजाद क्यों नहीं हैं? जुल्म को मिटाने के लिए कुछ जुल्म होगा ही। उससे वे डरें जो डरते हैं। डर हम जवानों के लिए नहीं है।

फिर वे चारों आदमी निश्चय करने लगे कि उन्हें खुद क्या करना चाहिए।

इतने में कालिंदीचरण को ध्यान आया कि न उसने खाना खाया है, न मित्रों को खाने के लिए पूछा है। उसने अपने मित्रों से माफी मांगकर छुट्टी ली और सुनन्दा की तरफ चला।

सुनन्दा जहां थी, वहां है। वह रोटी बना चुकी है। अंगीठी के कोयले उलटे तवे से दबे हैं। माथे को उंगलियों पर टिकाकर वह बैठी है। बैठी-बैठी सूनी-सी देख रही है। सुन रही है कि उसके पति कालिंदीचरण अपने मित्रों के साथ क्यों और क्या बातें कर रहे हैं। उसे जोश का कारण नहीं समझ में आता। उत्साह उसके लिए अपरिचित है। वह उसके लिए कुछ दूर की वस्तु है, स्पृहणीय, मनोरम और हरियाली। वह भारतमाता की स्वतंत्रता को समझना चाहती है, पर उसको न भारतमाता समझ में आती है, न स्वतंत्रता समझ में आती है। उसे इन लोगों की इस जोरों की बातचीत का मतलब ही नहीं समझ में आता। फिर भी, सच उत्साह की उसमें बड़ी भूख है। जीवन की हौंस उसमें बुझती-सी जा रही है, पर वह जीना चाहती है। उसने बहुत चाहा कि पति उससे भी कुछ देश की बात करें। उसमें बुद्धि तो जरा कम है, पर फिर धीरे-धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी। सोचती है, कम पढ़ी  हूं, तो इसमें मेरा क्या कसूर है? अब तो पढ़ने को तैयार हूं। लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है। खैर, उसने सोचा उसका काम तो सेवा है। बस यह मानकर उसने कुछ समझने की चाह ही छोड़ रखी है। वह अनायास भाव से पति के साथ रहती है और कभी उनकी राह के बीच में आने की नहीं सोचती! वह एक बात जानती है कि उसके पति ने अगर आराम छोड़ दिया है, घर का मकान छोड़ दिया है, जान-बूझकर उखड़े-उखड़े और मारे-मारे जो फिरते हैं, इसमें वे कुछ भला ही सोचते होगें। इसी बात को पकड़कर वह आपत्तिशून्य भाव से पति के साथ विपदा-पर-विपदा उठाती रही है। पति ने कहा भी है कि तुम मेरे साथ दुख क्यों उठाती हो, पर यह सुनकर वह चुप रह गई है। सोचती रह गई कि देखो, कैसी बातें करते हैं। वह जानती है कि जिसे सरकार कहते हैं, वह सरकार उनके इस तरह के कामों से बहुत नाराज है। सरकार सरकार है। उसके मन में कोई स्पष्ट भावना नहीं है कि सरकार क्या  होती है, पर यह जितने हाकिम लोग हैं, वे बड़े जबरदस्त होते हैं और उनके पास बड़ी-बड़ी ताकते हैं। इतनी फौज, पुलिस के सिपाही और मजिस्ट्रेट और मुंश और चपरासी और थानेदार और वायसराय - ये सब सरकार ही हैं। इन सबसे कैसे लड़ा जा सकता है? हाकिम से लड़ना ठीक बात नहीं है, पर यह उसी लड़ने में तन-मन बिसार बैठे हैं। खैर, लेकिन ये सब-के-सब इतने जोर से क्यों बोलते हैं? उसको यही बहुत बुरा लगता है। सीधे-सादे कपड़े में एक खुफिया पुलिस का आदमी हरदम उनके घर के बाहर रहता है। ये लोग इस बात को क्यों भूल जाते हैं? इतने जोर से क्यों बोलते हैं?

बैठे-बैठे वह इसी तरह की बातें सोच रही हैं। देखो, अब दो बजेगें। उन्हें न खाने की फिक्र, न मेरी फिक्र। मेरी तो खैर कुछ नहीं, पर अपने तन का ध्यान तो रखना चाहिए। ऐसी ही बेपरवाही से तो वह बच्चा चला गया। उसका मन कितना भी भी इधर-उधर डोले, पर अकेली जब होती है तब भटक-भटकाकर वह मन अंत में उसी बच्चे के अभाव पर आ पहुंचता है। तब उसे बच्चे की वही-वही बातें याद आती हैं- वे बड़ी प्यारी आँखें, छोटी-छोटी उंगलियां और नन्हें-नन्हें ओंठ याद आते है। अठखेलियां याद आती हैं। सबसे ज्यादा उसका मरना याद आता है। ओह! यह मरना क्या है? इस मरने की तरफ तो उससे देखा नहीं जाता। यद्यपि वह जानती है कि मरना सबको है- उसको मरना है, उसके पति को मरना है। पर उस तरफ भूल से छनभर देखती है तो भय से भर जाती है। यह उससे सहा नहीं जाता। बच्चे की याद उसे मथ देती है। तब वह विह्वल होकर आँखें पोंछती है और हठात इधर-उधर की किसी काम की बात में अपने को उलझा लेना चाहती है। पर अकेले में, वह कुछ करे, रह-रहकर वहीं याद-वही, वह मरने की बात उसके सामने हो रहती है और उसका चित्त बेबस हो जाता है।

वह उठी। अब उठकर बरतनों को मांज डालेगी, चौका भी साफ करना है। ओह! खाली बैठी मैं क्या सोचती रहा करती हूं।

इतने में कालिंदीचरण चौके में आए।

सुनन्दा कठोरतापूर्वक शून्य को देखती रही। उसने पति की ओर नहीं देखा।

कालिंदी ने कहा, "सुनन्दा खाने वाले हम चार हैं। खाना हो गया!"

सुनन्दा चून की थाली और चकला-बेलन और बटलोई, खाली बरतन वगैरह उठाकर चल दी, कुछ भी नहीं बोली।

कालिंदी ने कहा, "सुनती हो, तीन आदमी मेरे साथ और हैं। खाना बन सके तो कहो, नहीं तो इतने में ही काम चला लेंगें।"

सुनन्दा कुछ भी नहीं बोली। उसके मन में बेहद गुस्सा उठने लगा। यह उससे क्षमा-प्रार्थी से क्यों बात कर रहे हैं, हँसकर क्यों नहीं कह देते कि कुछ और खाना बना दो। जैसे मैं गैर हूं। अच्छी बात है, तो मैं भी गुलाम नहीं हूं कि इनके ही काम में लगी रहूं। मैं कुछ नहीं जानती खाना-वाना और वह चुप रही।

कालिंदीचरण ने जरा जोर से कहा, "सुनन्दा!"

सुनन्दा के जी में ऐसा हुआ कि हाथ की बटलोई को खूब जोर से फेंक दें। किसी का गुस्सा सहने के लिए वह नहीं हैं। उसे तनिक भी सुध न रही कि अभी बैठे-बैठे इन्हीं अपने पति के बारे में कैसी प्रीति की और भलाई की बातें सोच रही थी। इस वक्त भीतर-ही-भीतर गुस्से से घुटकर रह गई।

"क्यों?  बोल भी नहीं सकती!"

सुनन्दा नहीं बोली।

"तो अच्छी बात है। खाना कोई भी नहीं खाएगा।"

यह कहकर कालिंदी तैश में पैर पटकते लौटकर चले गए।

कालिंदीचरण अपने दल में उग्र नहीं समझे जाते, किसी कदर उदार समझे जाते हैं। सदस्य अधिकतर विवाहित हैं, कालिंदीचरण विवाहित ही नहीं हैं, वह एक बच्चा खो चुके हैं। उनकी बात का दल में आदर हैं। कुछ लोग उनके धीमेपन से रुष्ट भी हैं। वह दल में विवेक के प्रतिनिधि है और उत्पात पर अंकुश का काम करते हैं।

बहस इतनी बात पर थी कि कालिंदी का मत था कि हमें आतंक को छोड़ने की ओर बढ़ना चाहिए। आतंक से विवेक कुठिंत होता है और या तो मनुष्य उससे उत्तेजित ही रहता है या उसके भय से दबा रहता है। दोनों ही स्थितियां श्रेष्ठ नहीं हैं। हमारा लक्ष्य बुद्धि को चारों ओर से जगाना है, उसे आतंकित करना नहीं। सरकार व्यक्ति और राष्ट्र के विकास के ऊपर बैठकर उसे दबाना चाहती है। हम इसी विकास के अवरोध को हटाना चाहतें हैं- इसी को मुक्त करना चाहतें हैं। आतंक से वह काम नहीं होगा। जो शक्ति के मद में उन्मत हैं, असली काम तो उनका मद उताराने और उनमें कर्तव्यभावना का प्रकाश जगाने का है। हम स्वीकार करें कि उसका मद टक्कर खाकर, चोट पाकर ही उतरेगा। यह चोट देने के लिए हमें अवश्य तैयार रहना चाहिए, पर यह नोचा-नाची उपयुक्त नहीं। इससे सत्ता का कुछ बिगड़ता तो नहीं, उलटे उसे अपने औचित्य पर संतोष हो जाता है।

पर जब सुनन्दा के पास से लौटकर आया, तब देखा गया कि कालिंदी अपने पक्ष पर दृढ़ नहीं है। वह सहमत हो सकता है कि हां, आतंक जरूरी भी है। "हां" उसने कहा,  "यह ठीक है कि हम लोग कुछ काम शुरू कर दें"। इसके साथ ही कहा, "आप लोगों को भूख नहीं लगी है क्या? उनकी तबीयत खराब है, इससे यहां तो खाना बना नहीं। बताओं, क्या किया जाए? कही होटल चलें!"

एक ने कहा कि कुछ बाजार से यही मंगा लेना चाहिए। दूसरे की राय हुई कि होटल ही चलना चाहिए। इसी तरह की बातों में लगे थे कि सुनन्दा ने एक बड़ी से थाली में खाना परोसकर उनके बीच ला रखा। रखकर वह चुपचाप चली गई।

फिर आकर पास ही चार गिलास पानी के रख दिए और फिर उसी भांति चुपचाप चली गई।

कालिंदी को जैसे किसी ने काट लिया।

तीनों मित्र चुप रहे। उन्हें अनुभव हो रहा था कि पति-पत्नी के बीच स्थिति में कही कुछ तनाव पड़ा हुआ है। अंत में एक ने कहा, "कालिंदी, तुम तो कहते थे, खाना बना नहीं हैं।"

कालिंदी ने झेंपकर कहा, "मेरा मतलब था, काफी नहीं हैं।"

दूसरे ने कहा, "काफी है। सब चल जाएगा।"

"देखूं, कुछ और हो तो"- कहकर कालिंदी उठ गया।

आकर सुनन्दा से बोला, "यह तुमसे किसने कहा था कि खाना वहां ले आओ! मैंने क्या कहा था?

"चलो, उठा लाओ थाली। हमें किसी को यहां नहीं खाना है। हम होटल जाएंगे।"

सुनन्दा नहीं बोली। कालिंदी भी कुछ देर गुम खड़ा रहा। तरह-तरह की बातें उनके मन में और कंठ में आती थीं। उसे अपना अपमान मालूम हो रहा था और अपमान असह्य था।

उसने कहा, "सुनती नहीं हो कि कोई क्या कह रहा है? क्यों?"

सुनन्दा ने मुंह फेर लिया।

"क्या मै बकते रहने के लिए हूं?"

सुनन्दा भीतर-ही-भीतर घुट गई।

"मै पूछता हूं कि जब मैं कह गया था तब खाना ले जाने की क्या जरूरत थीं? सुनन्दा ने मुड़कर और अपने को दबाकर धीमें से कहा- "खाओगे नहीं! एक तो बज गया।"

कालिंदी निरस्त्र होने लगा। यह उसे बुरा मालूम हुआ। उसने मानों धमकी के साथ पूछा,  "खाना और है!"

सुनन्दा ने धीमे से कहा, "अचार लेते जाओ।"

"खाना और नहीं है! अच्छा, लाओ अचार।"

सुनन्दा ने अचार ला दिया और कालिंदी भी चला गया।

सुनन्दा ने अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखा था। उसे यह सूझा ही न था कि उसे भी खाना है। अब कालिंदी के लौटने पर ही जैसे उसे मालूम हुआ कि उसने अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखा है। वह अपने से रुष्ट हई। उसका मन कठोर हुआ। इसलिए  नहीं कि क्यों उसने खाना नहीं बचाया।इस पर तो उसमें स्वाभिमान का भाव जागता था। मन कठोर यों हुआ कि वह इस तरह की बात सोचती ही क्यों है? छिः! यह भी सोचने की बात है?  और उसमें कड़वाहट भी फैली। हठात यह उसके मन को लगता ही है कि देखो उनन्होंने एक बार भी नहीं पूछा कि तुम क्या खाओगी। क्या मैं यह सह सकती थी कि मैं तो खाऊं और उनके मित्र भूखें रहें! पर पूछ लेते तो क्या था? इस बात पर उसका मन टूटता-सा है। मानों उसका जो तनिक-सा मान था वह भी कुचल गया हो। वह रह-रहकर अपने को स्वयं तिरस्कृत कर लेती हुई कहती है कि 'छिःछिः सुनन्दा, तुझे ऐसी जरा बात का अब तक ख्याल होता है। तुझे तो खुश होना चाहिए कि उनके लिए एक रोज भूखे रहने का पुण्य तुझे मिला है। में क्यों उन्हें नाराज करती हूं? अब से नाराज न करूंगी। पर वह अपने तन की भी सुध तो नहीं रखते। यह ठीक नहीं है। मैं क्या करुँ?

और वह अपने बरतन मांजने में लग गई। उसे सुन पड़ा कि वे लोग फिर जोर-शोर से बहस करने में लग गए हैं। बीच-बीच में हँसी के कहकहे भी उसे सुनाई दिए। ओह! सहसा उसे ख्याल हुआ, बरतन तो पीछे भी मल सकती हूं। लेकिन उन्हें कुछ जरूरत हुई तो, यह सोंचकर झटपट हाथ धो वह कमरे के दरवाजे के बाहर दीवार से लगकर खड़ी हो गई।

एक मित्र ने कहा, "अचार और है! अचार और मंगाओं, यार!"

कालिंदी ने अभ्यासवश जोर से पुकारा,"अचार लाना भाई, अचार।" मानो सुनन्दा कहीं बहुत दूर हो। पर वह तो बाहर लगी खड़ी ही थी। उसने चुपचाप अचार लाकर रख दिया।

जाने लगी तो कालिंदी ने तनिक स्निग्ध वाणी से कहा, "थोडा पानी भी लाना।"

और सुनन्दा ने पानी ला दिया। देकर लौटी फिर बाहर द्वार से लगकर ओट में खड़ी हो गई जिससे कालिंदी कुछ मांगें तो जल्दी से ला दे।

- जैनेन्द्र

 

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