देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
1968-69 के वे दिन  (विविध)     
Author:शरद जोशी | Sharad Joshi

(यह लेख सौ वर्ष बाद छपने के लिए है)

आज से सौ वर्ष पहले अर्थात 1969 के वर्ष में सामान्‍य व्‍यक्ति का जीवन इतना कठिन नहीं था जितना आज है। न ऐसी महँगाई थी और न रुपयों की इतनी किल्‍लत। सौ वर्ष पूर्व यानी लगभग 1968 से 1969 के काल की आर्थिक स्थिति संबंधी जो सामग्री आज उपलब्‍ध है उसके आधार पर जिन तथ्‍यों का पता चलता है वे सचमुच रोचक हैं। यह सच है कि आम आदमी का वेतन कम था और आय के साधन सीमित थे पर वह संतोष का जीवन बिताता था और कम रुपयों में उसकी जरूरतें पूरी हो जाती थीं।

जैसे एक रुपये में एक किलो गेहूँ या गेहूँ का आटा आ जाता था और पूरे क्विण्‍टल गेहूँ का दाम सौ रुपये से कुछ ही ज्‍यादा था। एक सौ बीस रुपये में अच्‍छा क्‍वालिटी गेहूँ बाज़ार में मिल जाता है। शरबती, कठिया, पिस्‍सी के अलावा भी कई तरह का गेहूँ बाज़ार में नज़र आता था। दालें रुपये में किलो भर मिल जाती थीं। घी दस-बारह से पंद्रह तक में किलो भर आ जाता था और तेल इससे भी सस्‍ता पड़ता था। आम आदमी डालडा खाकर संतोष करता था जिसके तैयार पैकबंद डिब्‍बे अधिक महँगे नहीं पड़ते थे। सिर्फ़ अनाज और तेल ही नहीं, हरी सब्जि़यों की भी बहुतायत थी। पाँच रुपया हाथ में लेकर गया व्‍यक्ति अपने परिवार के लिए दो टाइम की सब्‍ज़ी लेकर आ जाता था। आने-जाने के लिए तब सायकिल नामक वाहन का चलन था जो दो सौ-तीन सौ रुपयों में नयी मिल जाती थी। छह ह‍ज़ार में स्‍कूटर और सोलह से पच्‍चीस-तीस हज़ार में कारें मिल जाती थीं। पर ज्‍़यादातर लोग बसों से जाते-आते थे, जिस पर बीस-तीस पैसा से अधिक ख़र्च नहीं बैठता था। निश्चित ही आज की तुलना में तब का भारत सचमुच स्‍वर्ग था।

मकानों की बहुतायत नहीं थी पर कोशिश करने पर मध्‍यमवर्गीय व्‍यक्ति को मकान मिल जाता था। तब के मकान भी आज की तुलना में बड़े होते थे, यानी उनमें दो-तीन कमरों के अलावा कुछ खुली जमीन मिल जाती थी। छोटे शहरों में दस-पंद्रह रुपयों में चप्‍पल और पच्‍चीस-चालीस में चमड़े का जूता मिल जाता था जो कुछ बरसों तक चला जाता था। डेढ़ सौ से लेकर तीन-चार सौ तक एक पहनने लायक सूट बन जाता था-टेरीकॉट के सिले-सिलाये। कमीज़ सिर्फ़ पचास-खुद कपड़ा खरीदकर सिलवाने में बीस-पच्‍चीस में बन जाती थी। एक सामान्‍य-व्‍यक्ति अपने पास तीन-चार क़मीज़ या बुश्‍शर्ट रखता था। लोगों को पतलून के अंदर लँगोट पहनने का शौक था, जो डेढ़-दो रुपये में मिल जाती थी।

औरतों का भी ख़र्च ज्‍यादा नहीं था। एक साड़ी तीस-पैंतीस से सौ-सवा सौ में पड़ जाती थी। हर औरत के पास ट्रंक भर साडि़याँ आम तौर पर रहती थीं जो वे बदल-बदलकर पहन लेती थीं। स्‍नो की डिबिया दो रुपये में, लि‍पस्टिक ढाई-तीन रुपये में और चूडि़याँ रुपये की छह आ जाती थीं। इसी कारण शादी करके स्‍त्री घर लाना महँगा नहीं माना जाता था। अक्‍सर लोग अपने विवाह तीस साल की उम्र में कर डालते थे। स्त्रियों का बहुत कम प्रतिशत नौकरी करता था। अधिकांश स्त्रियों का मुख्‍य धन्‍धा पत्‍नी बनना ही था। कुछ स्त्रियों के कुँवारी रहकर जीवन बिताने के भी प्रमाण मिलते हैं। पर विवाह का फैशन ही सर्वत्र प्रचलित था। यह कार्य अक्‍़सर माता-पिता करवाते थे, जो बच्‍चों को घरों में रखकर पालते थे।

1969 का भारत सच्‍चे अर्थों में सुखी भारत था। लोग दस-साढ़े दस बजे दफ़्तर जाकर पाँच बजे वापस लौटते थे, पर दफ़्तरों में एक कर्मचारी के पास दो घण्‍टे से अधिक का काम नहीं था। कैंटीन में चाय का कप बीस-तीस पैसों में मिल जाता था। एक ब्‍लेड बारह-पंद्रह पैसों में कम-से-कम मिल जाती थी। और अख़बार बीस पैसे में आ जाता था। जिन्‍हें शराब पीने की आदत नहीं थी वे दो रुपया जेब में रख सारा दिन मज़े से गुज़ार देते थे। सिगरेट की डिबिया में दस सिगरेटें होती हैं और पूरी डिबिया पचास-साठ पैसों में मिल जाती थी। पहले की सिगरेट भी आज की सिगरेटों की तुलना में काफ़ी लंबी होती थी। हाथ की बनी बीड़ियाँ आज की तरह नियामत नहीं थीं। दल-पंद्रह पैसे के बंडल में बीस बीड़ियाँ निकलती थीं। माचिस आठ-दस पैसे में आ जाती थी। जिनमें साठ-साठ तक तीलियाँ होती थीं। हालाँकि लायटर का रिवाज़ भी शुरू हो गया था था।

1968-69 की स्थिति का अध्‍ययन करने पर पता लगता है कि रेडियो सुनने और सिनेमा देख लेने के अलावा कला-संस्‍कृति पर लोग अधिक खर्च नहीं करते थे। हालाँकि अख़बार निकलते थे, पत्रिकाएँ छपती थीं पर उनकी बिक्री कम थी। माँगकर पढ़ने और सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों और नाटकों के फ्री पास प्राप्‍त करने का प्रयत्‍न चलता रहता था। उसमें सफलता भी मिलती थी। विद्वानों के भाषण फोकट में सुनने को मिल जाते थे। मुफ्त निमंत्रण बाँट निवेदन किये बग़ैर भीड़ जुटना कठिन होता था। लेखक सस्‍ते पड़ते थे। आठ-दस रोज़ मेहनत कर लिखी रचना पर तीस-पैंतीस से सौ-डेढ़ सौ तक मिल जाता था पर कविताएँ पच्‍चीस से ज्‍़यादा में उठ नहीं पाती थीं। बहुत-सी पत्रिकाएँ बिना लेखकों-कवियों को कुछ दिये ही काम चला लेती थीं। एक पत्रिका आठ-दस रुपये साल में एक बार देने पर बराबर आ जाती थी। अधिकांश पत्रिकाएँ लेखकों-कवियों को मुफ़्त प्रति दे रचनाएँ प्राप्‍त कर लेती थीं। सस्‍ते दिन थे। चार रुपये रीम काग़ज़ मिलता था और साठ पैसों में स्‍याही की बोतल मिल जाती थी। वक्‍़त काफ़ी था, लेखक लोग रचना माँगने पर दे देते थे।

निश्चित ही 2068-69 की तुलना में सौ वर्ष पूर्व के वे दिन बहुत अच्‍छे थे। देश में इफ़रात थी और चीज़ें सस्‍ती थीं। आज उस तुलना में भाव आसमान पर पहुँच गये हैं कि जीना मुश्किल है। कमाई में पूरा नहीं पड़ता बल्कि बहुत से लोगों के लिए दोनों टाइम का भोजन जुटाना भी कठिन है। मकान और फर्नीचर सभी महँगा है कि लोग कठिनाई से ख़रीद पाते हैं। उन दिनों में एक सोफ़ासेट ढाई सौ से सात सौ रुपयों में आ जाता था और साधारण निवाड़ का पलँग (तब निवाड़ के पलँग प्रचलित थे) तीस-चालीस से ज्‍़यादा नहीं पड़ता था। तीस रुपये में रज़ाई और साठ-सत्तर में बढ़िया कम्‍बल मिल जाते थे। कोई आश्‍चर्य नहीं अगर आज 2069 की तुलना में 1969 का आदमी काफ़ी सोता था और घण्‍टों रज़ाई में घुसे रहना सबसे बड़ी ऐयाशी थी। आज वे दिन नहीं रहे, न वैसे लोग। हमारे उन पुरखों ने जैसा शुद्ध वनस्‍पति घी खाया है, वैसा हमें देखने को भी नहीं मिलता। तब की बात ही और थी। एक रुपये में आठ जलेबियाँ चढ़ती थीं, लोग छककर खाते थे। केला रुपये दर्जन तक आ जाता था। फिर क्‍यों नहीं बनेगा अच्‍छा स्‍वास्‍थ्‍य? पुराने लोगों को देखो-साठ-सत्तर से कम में कोई कूच नहीं करता था। लंबी उमर जीते थे और ठाठ से जीते थे। आज की तरह श्मशान में अर्थियों का क्‍यू नहीं लगता था। पाँच रुपये में पूरा शरीर ढँकने का कफ़न आ जाता था। सुख और समृद्धि के वे दिन आज कहानी लगते हैं जिन पर सहसा विश्‍वास नहीं आता। पर यह सच है कि आज से सिर्फ़ सौ वर्ष पूर्व हमारे देश के लोग सुख की जिंदगी बिता रहे थे। तब का भारत आज की तुलना में निश्चित ही स्‍वर्ग था।

- शरद जोशी

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