देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
सोनू की बंदूक (कथा-कहानी)     
Author:लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

सोनू की बंदूक उस तरह की बंदूक नहीं थी जैसी घर घर में बच्चे प्लास्टिक या लोहे की बंदूक से खेलते रहते हैं..। दरअसल सोनू अपनी दोनों हथेलियों को आपस मे गूंथकर दो उंगलियां बंदूक की नाल की तरह सामने रखकर जब ठॉंय करता तो देखने वाला उसकी इस अदा को देखता ही रह जाता..। उसकी इसी प्यारी अदा को देखने के लिए उसके चाचा और दूसरे घरवाले सोनू को जानबूझकर छेड़ते ताकि सोनू अपनी बंदूक से ठायँ करे। जब ठायँ करने पर सामने वाला अपने सीने या पेट पर हाथ रखकर हाय करता या लड़खड़ाता तो सोनू अपनी जीत पर खूब खिलखिलाकर हँसता। सोनू की बंदूक की प्रतिष्ठा अड़ोस पड़ोस और मोहल्ले मे भी पहुंच गयी थी। सोनू चबूतरे पर होता तो मोहल्ले वाले भी उसे छेड़ कर ठॉयँ का मज़ा लेते और लड़खड़ाकर गिरने का नाटक करते। अब सोनू को अपनी बंदूक की मारक क्षमता पर पूरा भरोसा हो गया था।

उस दिन चीख पुकार सुन कर सोनू नींद से उठकर आंगन में आ गया था। दंगाइयों ने सोनू के पापा को घेर रखा था। पूरे घर के लोग चीख चीख कर रो रहे थे ..दंगाइयों के आगे रहम की भीख मांग रहे थे पर दंगाई बेरहमी से सोनू के पिता को पीट रहे थे.. सोनू को अपनी बंदूक याद आई..वो अपनी बंदूक से लगातार दंगाइयों पर ठायँ ठायँ करता जा रहा था..सोनू समझ नहीं पा रहा था कि आज उसकी बंदूक बेअसर क्यों हो रही है…!!!

-लक्ष्मी शंकर वाजपेयी

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश