देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
सांप-सीढ़ी (कथा-कहानी)     
Author:दिव्या माथुर

सिनेमाघर के घुप्प अंधेरे में भी राहुल की आंखें बरबस खन्ना-अंकल के उस हाथ पर थीं जो उसकी मम्मी के कंधों और कमर पर बार-बार बहक रहा था। मम्मी के अनुसार खन्ना-अंकल ने यह फिल्म इसलिए चुनी थी कि चार्ली- चैपलिन राहुल का चहेता कमीडियन था।

राहुल जानना चाहता था कि खन्ना-अंकल को उसकी मम्मी को छूने में क्या मज़ा आता था। क्यों मम्मी उनसे घबरातीं, बचती फिरतीं थीं पर उन्हें अपने को छूने से रोक नहीं पातीं थीं, क्यों? 

सहमी सी मम्मी चोर नजरों से राहुल की तरफ़ देखती हुई कई बार वह खन्ना- अंकल का हाथ झटक चुकी थीं। राहुल की तिरछी नज़रें उन्हें अंदर तक उद्विग्न कर रही थीं। उन्होंने फुसफुसा कर खन्ना-अंकल से कुछ कहा तो वह कुड़कुड़ाने लगे। न जाने कैसे शब्द थे जो राहुल के पल्ले नहीं पड़ते पर वह जानता था कि जो उसकी समझ से बाहर था, वह गंदा था। पर्दे पर क्या चल रहा था; उसमें उसकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उसकी सारी इन्द्रियां उस फुसफुसाहट का मतलब समझने पर तुली हुए थीं।

आज राहुल का बारहवां जन्मदिन था; अच्छा उपहार मिला उसे इस फिल्म के रूप में! कितनी प्रफुल्लित थी मम्मी कि खन्ना अंकल राहुल को चार्ली-चैपलिन दिखाने की बात कर रहे थे। राहुल में उनकी दिलचस्पी मम्मी को शायद दिलचस्प लगी हो किंतु वह जानता था खन्ना-अंकल की इसमें भी कोई चाल होगी। वही हुआ। वह देर से पहुंचे और आते ही उन्होंने मम्मी से कहा कि वह महिलाओं की क्यू में खड़े होकर टिकट ले लें। वह सकपका उठी थीं क्योंकि उन्होंने पहले कभी टिकट नहीं खरीदे थे; पापा हमेशा पहले से ही सीटें रिजर्व करा लेते थे। टिकट के पैसे देते हुए राहुल के सामने मम्मी को नीचा देखना पड़ा था, जो दो दिन से गा रही थीं कि खन्ना-अंकल ने ख़ासतौर पर राहुल के जन्मदिन के उपलक्ष्य में चार्ली-चैपलिन फ़िल्म के टिकट ख़रीदे थे, जिसके बदले में मम्मी चाहती थीं कि राहुल खन्ना-अंकल को ‘थैंक्स’ कहे। कब समझेंगी मम्मी कि खन्ना-अंकल बड़े चालबाज़ हैं या उसके पापा के शब्दों में ‘धूर्त’ हैं?

मम्मी को चोट पहुंचाने से डरता है राहुल। नहीं तो अब तक वह कब का खन्ना- अंकल के हाथ घास काटने वाली बड़ी कैंची से काट फेंकता। फिर चाहे उसे जेल भिजवा दिया जाता।

‘व्हाट ए मैन हैज़ टु डू, ए मैन हैज़ टू डू।’  उसके पापा कहा करते थे और मम्मी उनसे कितना प्रभावित हो जाती थीं? राहुल को एकाएक लगा कि वह बहुत थक गया है; घर जाकर बस सो जाना चाहता है; उसे नहीं मनानी अपनी सालगिरह-वालगिरह।

उसे होस्टल क्यों नहीं भेज देती मम्मी; जैसा कि खन्ना अंकल कहते रहते हैं?  मम्मी की ज़िद कि वह राहुल के बगैर नहीं रह सकतीं। राहुल जानता है कि वह खन्ना अंकल से डरती हैं और राहुल के बग़ैर अकेले वह उनके साथ एक पल भी नहीं टिक पाएंगी। 

सारा दिन मम्मी, मम्मी रहती हैं। शाम होते ही एक अजीब औरत उनपर हावी हो जाती है, जो रात देर गए, खन्ना-अंकल के जाने के बाद ही मम्मी को छोड़ती है। कभी-कभी राहुल सोचता है कि उसे क्या लेना देना है इस पचड़े से? क्यों नहीं चुपचाप अपने कमरे में वह अपनी किताबों में खोया रहता? पर मम्मी उसे अकेला छोड़ें तब न। 

मम्मी जानती हैं कि राहुल को खन्ना अंकल का हर शाम को आना और रात गए तक टिके रहना पसंद नहीं। शाम के छह बजे मम्मी दो हिस्सों में बंट जाती हैं; एक हिस्सा राहुल की मनुहार करता है और दूसरा खन्ना अंकल की मेहमान-नवाजी। एक हिस्सा भागता है राहुल का माथा चूमने तो दूसरा हिस्सा बेबस सीढ़ियां उतर कर जाता है खन्ना-अंकल के पास। खन्ना अंकल मम्मी से कई बार कह चुके हैं कि राहुल बड़ा हो गया है, उसे कुछ देर अकेला भी छोड़ा जाना चाहिए। जब तब मम्मी को वह डांट भी पिलाते हैं कि राहुल को उन्होंने सिर चढ़ा रखा है। 

शाम को मम्मी चाहती हैं कि राहुल ‘नमस्ते अंकल’ कहकर उनका स्वागत करे। यह कार्य दुष्कर है, किसी तरह बुड़बुड़ाकर वह नमस्ते कह भी देता है तो तीन चार घंटे उसे फिर तैयारी करनी होती है उनकी विदा की। मम्मी की सहमी तिरछी नज़र राहुल से सब करवा लेती है। राहुल को सामान्य होने में घंटों लगते हैं या यह कहा जाए कि वह सामान्य होने की कोशिश में जी जान से जुटा रहता है।

सिनेमाघर से सीधे घर लौट आए हैं। खाना कहीं खाने बैठते तो शायद खन्ना अंकल को पैसे देने पड़ जाते। हालांकि पैसे मम्मी से निकलवाना उनके लिए कोई बड़ी बात नहीं है। अभी पिछले महीने की ही बात है कि उसने खन्ना अंकल को मम्मी से रुपये मांगते सुना था, ‘ज़रा पांच सौ रुपये हों तो देना, मां को मथुरा जाना है। मेरी तनख्वाह बैंक में जमा होते एक हफ्ता लग जाता है।’ मां ने चुपचाप सेफ से पांच सौ रुपये निकाल कर उन्हें दे दिए थे। एक ही घंटे में वह वापिस आए और कहने लगे, ‘मेरी जेब काट ली किसी ने स्टेशन पर, पांच सौ रुपये और दे दो।’ अपने चेहरे पर आए अविश्वास के भावों के लिए मम्मी  शर्मिंदा थीं। उन्होंने चुपचाप रुपये फिर निकाले और उन्हें दे दिए। बाद में वह राहुल से भी आंखें चुरा रही थी। वह जानती थीं कि राहुल के मन में खन्ना अंकल के लिए कोई जगह न बची थी, स्वयं उनके मन में भी, फिर क्यों ये आना जाना जारी था, क्यों? उन रुपयों का ज़िक्र दोनों में से किसी ने दोबारा नहीं किया। राहुल को क्या पता, हो सकता है कि खन्ना अंकल मम्मी से पैसे लेते ही रहते हों।  

घर लौटे तो मम्मी रसोई में घुस गईं और क्रोध में भरा हुआ राहुल अपने कमरे में किताबें लेकर बैठ गया।

‘राहुल, बेटा नीचे आओ, केक लगा दिया है।’ मम्मी ने नीचे से आवाज़ दी। मन हुआ कि केक काटने से पहले राहुल खन्ना-अंकल की आंखे फोड़ दे ताकि वह उसकी मम्मी पर अपनी गंदी आंखें कभी न उठा पाएं। किसी तरह नीचे आया। मम्मी सहमी ही थीं, मानो उन्हें पता था कि राहुल के मन में क्या था।

‘मेक ए विश, राहुल,’ मम्मी ने कहा तो राहुल के मन में सिर्फ एक ही इच्छा थी कि जब वह आंखे खोले तो खन्ना-अंकल सदा के लिए जा चुके हों। खन्ना-अंकल जानते थे कि राहुल उनसे बेहद नफ़रत करता था; वह खिड़की के पास जा खड़े हुए। जब राहुल ने आंखें खोलीं तो सामने मम्मी को मुस्कुराता हुआ पाया, और क्या चाहिए था राहुल को?

‘आप दोनों थोड़ी देर सांप-सीढ़ी खेलो, मैं खाना तैयार लगाती हूँ।’ मम्मी कहकर जल्दी से रसोई में घुस गईं। उन्हें पता था कि राहुल ना-नुकर करेगा। खन्ना-अंकल सांप-सीढ़ी खोलकर तैयार बैठे थे। कोई चारा न देख राहुल कुर्सी पर जा बैठा। उन्होंने उससे रंग चुनने तक को नहीं पूछा।

राहुल का ध्यान खेल में ज़रा भी न था। उसके साथ खेलते हुए भी खन्ना- अंकल अपनी चालबाजी से बाज़ नहीं आए; दो बार उन्होंने राहुल को सीढ़ी चढ़ने से रोका और दो बार उसे बिना बात के सांप से डसवा कर नीचे ले आए। राहुल उनसे क्या कहता कि वह बेईमानी कर रहे थे? खाने गिनते हुए वह अपनी गोटी हमेशा एक या दो खाने आगे बढ़ा लेते और राहुल की पीछे रहने देते। राहुल को लगा कि ग़ुस्सें में कहीं वह पागल न हो जाए। शुक्र है कि मम्मी ने खाना लगा दिया था और वह उन्हें खाने के कमरे में बुला रही थी। 

‘गुड लक नैक्स्ट टाइम, सन,’ उठते हुए खन्ना-अंकल ने ज़ोर से कहा ताकि मम्मी सुन ले कि उन्होंने राहुल को हरा दिया था और यह भी कि उन्होंने राहुल के लिए ‘सन’ का सम्बोधन चुन लिया था। राहुल के तन बदन में आग लग गई। मम्मी ने भांप लिया था कि क्या हुआ था पर वह चुपचाप खाना परोसने में लगी रहीं। आज वह साफ़-साफ़ कह देगा मम्मी से, वह किसी का ‘सन वन’ नहीं है। उसे होस्टल भेज दें और जो चाहें करें। 

‘“तो कब शादी कर रही हैं आप खन्ना से?’ सुबह स्कूल की बस के इंतज़ार में खड़े हुए डेज़ी की मम्मी ने मम्मी से पूछा था। मम्मी का चेहरा सफ़ेद हो गया था; उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। बस के चलते ही वह घर की ओर भाग ली थीं। कब तक पड़ोसियों से भागेगीं?  लोग तो पूछेंगे ही न? वह जवाब नहीं देंगी तो वे राहुल से पूछेंगे। वह भाग कर कहां जाएगा? 

पिछले महीने जब दादा-दादी जी आए थे तो खन्ना-अंकल छुट्टी लेकर उनके सिर पर सवार रहे। मम्मी अथवा राहुल से उन्हें बात करने का कोई मौका ही नहीं मिला। राहुल को ले जाने को वे तैयार थे पर मम्मी को नहीं, शायद खन्ना-अंकल की वजह से। वे यहां कुछ ठहर जाते तो खन्ना-अंकल का आना जाना बंद हो गया होता। न जाने वे क्यों नहीं समझ पाते मम्मी को? दादी तो मम्मी को चुड़ैल कहती थीं; तभी तो पापा उन्हें अपने यहां नहीं बुलाते थे। बेचारी मम्मी का तो अपना कोई भी नहीं, जहां वह जा सकें, जिनसे वह अपने मन की बात कर सकें। मौसी-मौसा भी अमेरिका जा बसे; उनको लिखने का क्या फायदा? मौसा जी एक बार पापा को बता रहे थे कि आजकल अमेरिका और इंग्लैंड वाले बहुत सख्त हो गए हैं। कौन समझाएगा मम्मी को? राहुल को तो वह बच्चा समझती हैं। खन्ना-अंकल का ऊंचा स्वर सुना तो राहुल के कान खड़े हो गए। वह सीढ़ियां उतरकर नीचे चला आया। खन्ना अंकल उसकी मम्मी को डांट रहे थे। 

‘इतना ढेर सा क्यों पका लेती हो? मेरी मां को फ़िजूल की बातें बिल्कुल पसंद नहीं। अब यह बासी खाना कौन खायेगा? जानती हो कितनी मंहगाई बढ़ गई है? कल ध्यान रखना, मां आ रही है मेरे साथ।’

मम्मी चुपचाप बदहवास सी खड़ी थीं। वह कितना और कुछ भी पकायें, वह कौन होते हैं उनसे जवाब-तलबी करने वाले? आज तक वह घर में एक पैसे की चीज़ नहीं लाए, जब तब मां से ही पैसे उधार मांगते रहते हैं। राहुल का रोम-रोम चिल्ला उठा, ‘मम्मी, इनको घर से निकाल दीजिए, ये हमारा सब छीन लेंगे। हम कहीं के नहीं रहेंगे, मम्मी कुछ तो बोलिए।’ 

राहुल चुपचाप ऊपर चला आया; मम्मी को अहसास था कि वह सुन रहा था। मम्मी देर तक ऊपर नहीं आईं। अंकल के चले जाने के देर बाद तक वह नीचे खटपट करती रहीं; ग़ुस्से में रोता-धोता राहुल न जाने कब सो गया। 

पसीने से तरबतर जब उसकी आंख खुली तो मम्मी उसके बिस्तर में बैठी ‘शश’ कर रही थीं। ‘बेटे बुरा सपना देखा क्या?’ दिमाग़ पर ज़ोर डालकर वह याद करने का प्रयत्न करता रहा कि क्या सपना था जिससे वह इतना डर गया?

चारों तरफ़ सांप ही सांप थे, फन फैलाए अपनी पैनी जीभ लपलपाते। राहुल सीढ़ियां चढ़ता जा रहा था पर वे उसका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। एक दो बार उसने सांपों की जीभें अपने नंगे तलवों पर महसूस कीं। ऊपर कहीं खिड़की में खड़ी मम्मी चिल्ला रही थीं, ‘राहुल, बेटा जल्दी जल्दी चढ़ो, शाबाश, यह लो मेरा हाथ पकड़ लो, बेटा, पीछे नहीं देखो, इधर देखो मेरी तरफ़।’

राहुल ने पीछे मुड़ कर देखा तो सांपों के फनों की जगह खन्ना-अंकल के चेहरे उग आए थे; लाल-लाल जीभें निकाले राहुल को डसने को आतुर। डर के मारे वह नीचे की ओर गिरने लगा और उसे गिरता देख मम्मी घबराकर खिड़की से कूद पड़ीं। दोनों हवा में तैर रहे थे; चीख़ते-चिल्लाते। रात को वह सपना एक बार फिर आया था राहुल को किंतु जब वह उठा तो मम्मी उसके पास ही सो रही थीं। 

पापा की मौत के बाद खन्ना-अंकल न जाने कहां से टपके थे। एक बार राहुल पापा के साथ दफ्तर गया था तब शायद खन्ना अंकल को अन्य कर्मचारियों के साथ देखा था। राहुल को याद इसलिए रहा कि किसी बात पर पापा ने उन्हें बुरी तरह से डांट दिया था। बाद में राहुल जब चपरासी के साथ कैन्टीन जाने के लिए बाहर आया तो खन्ना अंकल राहुल को घृणा से देख रहे थे। राहुल को उनसे बड़ा डर लगा था पर बात आई गई हो गई।

जब पापा के शव को घर लाया गया था तब उनके दफ्तर के अन्य कर्मचारियों के साथ खन्ना-अंकल भी शोक प्रकट करने आए थे। बाक़ी सब तो लौट गए किंतु घर संभालने के बहाने वह टिके रहे। मम्मी को तो कुछ होश ही नहीं था। मम्मी से पैसे मांग-मांग कर खन्ना अंकल सब सम्भालने का दिखावा करते रहे। दादी को तो वह एक आंख नहीं सुहाये; मम्मी पर वह और भी नाराज़ हो उठीं थीं। दादा जी मम्मी से कहकर गए थे कि कभी ज़रूरत हो तो फ़ोन कर दें या पत्र लिख दें। न कभी उन्होंने पत्र लिखा और न ही मम्मी ने।

राहुल ने सोचा कि क्यों न वह ये सब दादा जी को लिखे। वह ज़रूर मदद करेंगे, आख़िर वह उनका इकलौता पोता था।

सुबह से मम्मी घर साफ़ करने में जुटी थीं; ख़न्ना-अंकल की मम्मी जो आने वाली थीं। ‘क्यों आ रही हैं?’ राहुल ने पूछा तो मम्मी कुछ नहीं बोलीं। प्रश्न पूछना तो उन्होंने जाना ही नहीं। पापा थे तब भी वह बस घर संभालती थीं और ढेर सा खाना पकातीं, प्यार करतीं, बहुत सा। सब्जी लाना, घर में कोई टूट फूट हो जाए तो बढ़ई कारीगर बुलाना सब पापा के ज़िम्मे था। फ़िल्म जाना होता तो चपरासी टिकट ले आता था। फ़िल्म के बाद वे बाहर ही कहीं खाना खाते और वापिस आकर सांप-सीढ़ी खेलते, जिसमें पापा मम्मी को जिताए चले जाते। राहुल को लगता था कि मम्मी को तो शायद ठीक से गिनती भी नहीं आती। पापा होते तो खन्ना-अंकल की क्या मजाल थी वह उन्हें घर में भी घुसने देते।

आज सारा दिन खन्ना-अंकल और उनकी मां के लिए सफाई करेंगी और खाना बनाएंगी। दूसरी ओर वह तैयार करेंगी एक ताश-महल राहुल के लिए, जो खन्ना-अंकल के आते ही बिखर जाएगा। मम्मी फिर कई दिनों तक मलबा बीनेंगी। अपने कमज़ोर हाथों से अपने राजा-बेटे के लिए फिर खड़ा करेंगी एक ताश-महल, आंखें चुराती अपने ही बेटे से कि जैसे गुनाह कर रही हों।

इसी बीच, राहुल ने दादा को तीन-पृष्ठों का पत्र लिखा; अपनी बारह बरस की बुद्धि से कहीं पेचीदा। उसे विश्वास था कि दादा जब पढ़ेंगे तो उन्हें लगेगा कि पोते ने नहीं, उनके बेटे ने पत्र लिखकर सहायता मांगी है। मम्मी के ड्राअर से वह एक स्टैम्प लेते हुए सोच रहा है कि मम्मी को बताए या नहीं। उन्हें पत्र दिखा दे तो शायद वह स्वयं ही समझ जाएं; पत्र भेजने की आवश्यकता ही न पड़े। फिर सोचा कि नहीं, पत्र दिखा दिया तो वह अपने को कभी माफ नहीं करेंगी, न जाने क्या कर बैठें?

‘मम्मी, मैंने दादा जी को पत्र लिखा है, आपकी ड्राअर से एक स्टैम्प ले लूं क्या?’ राहुल ने रसोई में आकर पूछा तो वह सकपका गईं। 

‘आप पढ़ेंगी मैंने क्या लिखा?’ 

खाली आंखों से मम्मी केवल उसे देखती भर रहीं; उन्हें यह भी नहीं पता कि वह पत्र देखना चाहेंगी या नहीं। 

‘तो मैं ये अभी पोस्ट बाक्स में डालकर आया। आपको कुछ बाज़ार से चाहिए?’ वह फिर भी नहीं बोलीं। जब वह वापिस आया तो मम्मी उसी जगह खड़ी थीं जहां वह उन्हें छोड़ कर गया था।

‘मम्मी, सब ठीक हो जाएगा।’ राहुल ने उन्हें हाथ पकड़कर कुर्सी पर बैठा दिया।

‘सचमुच राहुल?’ वह भूल गईं कि वह केवल उनका बेटा राहुल था, कोई बड़ा-बूढ़ा नहीं।

‘जाइए, आप नहा धो कर तैयार हो जाइए, मेहमान आते होंगे।’ राहुल ने कहा तो मम्मी कांप उठीं; पापा भी तो उनसे ऐसे ही कहा करते थे। उन्हें कोई चाहिए था हमेशा अपने आसपास; पापा की जगह इसीलिए आसानी से हथिया ली थी खन्ना-अंकल ने। फर्क बस इतना था कि मम्मी पापा पर अपरिमित श्रद्धा और स्नेह रखती थीं। खन्ना-अंकल से वह भयभीत रहती थीं किंतु उनके चले जाने से वह और भी घबराती रही थीं। 

दो-तीन दिन से राहुल चौकन्ना है क्योंकि मम्मी और खन्ना-अंकल के बीच एक खिंचे तार सा तनाव है। परसो यकायक खन्ना अंकल ने दफ्तर से आते ही मम्मी से कहा कि नौका-विहार के लिए पुराना किला चलें। राहुल और मम्मी दोनों के कान खड़े हो गए। जरूर कुछ चक्कर था। मम्मी जानती थी कि राहुल उनके साथ जाना पसंद नहीं करेगा, न ही खन्ना अंकल चाहते थे कि राहुल उनके साथ चले। 

‘घर में ही क्यों न आलू-प्याज के पकौड़े.....’ मम्मी ने सहम कर अपनी  बात अधूरी ही छोड़ दी थीं। शायद खन्ना-अंकल ने उन्हें क्रोध में घूरा था।

‘राहुल, चलो जल्दी से तैयार हो जाओ, बोटिंग के लिए जाना है।’ मम्मी ने सीढ़ी के पास खड़े होकर राहुल से कहा। वह भुनभुनाता हुआ सीढ़ियों पर उतर आया था। खलनायक की मुस्कान लिए खन्ना अंकल मम्मी की ओर बढ़े ही थे कि मम्मी खिसक लीं। 

‘मैं राहुल को तैयार करती हूँ।’ खन्ना अंकल अख़बार खड़खड़ाते हुए पापा की आराम कुर्सी पर बैठ गए। उनकी नज़रें मानो मम्मी का पीछा करतीं हुई राहुल के कमरे तक चली आई थीं। 

‘कब तक बच्चा बनाए रखोगी इसे, साहबज़ादे क्या खुद तैयार नहीं हो सकते?’ वह बुड़बुड़ा रहे थे।

मम्मी लज्जित सी उसके कपड़े निकाल रही थीं। राहुल की नज़रों से अपने को बचाती हुई वह उसकी मनुहार कर रही थीं कि वह साथ चले। वह इतनी भयभीत हो उठीं थीं कि राहुल उनके साथ चुपचाप चल पड़ा था। ऐसे मौकों पर राहुल को पापा पर बहुत गुस्सा आता था; जो उन्हें यूं अचानक छोड़ गए, उन्हें कुछ तैयार ही करके जाते। मम्मी मानो राहुल की गुनहगार थीं।

बोटिंग के टिकट नहीं मिल पाए थे। वे लोग पार्क में आ बैठे। खन्ना-अंकल ने राहुल से आइसक्रीम ले लेने के लिए कहा तो मम्मी ने उसे पर्स से कुछ पैसे निकाल कर दे दिए किंतु राहुल नजदीक ही एक पेड़ के पीछे से खन्ना-अंकल पर नज़र जमाये खड़ा रहा ताकि मम्मी के इशारा करते ही वह भागकर उनके पास पहुंच जाए। न जाने खन्ना-अंकल ने मम्मी से क्या कहा कि मम्मी का चेहरा फक्क पड़ गया। राहुल का मन हुआ कि वह उन्हें अपनी बांहों में भर ले और उनकी हिम्मत बंधाये।

वापिस आते समय तीनों चुप थे। खन्ना-अंकल हल्का-फुल्का महसूस कर रहे थे शायद उनके मन का बोझ हल्का हो गया था। क्या कहा होगा मम्मी से? राहुल सोचता रहा शाम भर, रात भर। मम्मी ने न बताया, न राहुल ने पूछा। 

वापिस घर आकर राहुल सीधा अपने सोने के कमरे में चला गया। खिड़की से झांका तो देखा कि खन्ना-अंकल अपनी शाम को शायद कुछ अर्थ देने की कोशिश में थे। राहुल ने ग़ुस्से में अपनी सिसकियां रोक लीं और बिस्तर पर स्थिर पड़ा रहा। मम्मी ऊपर आईं तो राहुल के चेहरे का असंतोष और आंसू उन्हें अंदर तक झकझोड़ गए। चुपचाप वह उसके पास लेट गईं; लगा कि दोनों के कष्ट कुछ कम हुए। जल्दी ही वे दोनों सो गए। 

मम्मी तैयार होकर नीचे उतरी तो लगा बदल गयी हों। तरो-ताजा थीं, कुछ-कुछ विश्वास भी फूट रहा था यहां-वहां।

‘देखिए आज मैंने आपके लिए चाय बनाई है, पी के बताइए कैसी बनी है।’ राहुल को बहुत गर्व हुआ कि मम्मी ने उसकी चाय की तारीफ की। वे दोनों लूडो खेल रहे थे जब खन्ना अंकल और उनकी मां पधारे। अपने पापा की कुर्सी पर राहुल जान बूझकर बैठा था शायद। खन्ना-अंकल कुछ देर राहुल को घूरते रहे कि वह उठ जाएगा पर वह नहीं उठा। फिर उन्होंने मम्मी की ओर देखा; जो पासा फेंकने में लगी थीं। झक मारकर वह बड़े सोफे पर बैठ गए। अखबार फैलाकर। उनकी मां सारा घर देखती; बिना किसी से पूछे। जब वापिस आईं तो अपने बेटे के साथ कुछ खुसुर-पुसुर करने लगीं। 

‘अरे छोड़ो ये लूडो-वूडो, चाय नहीं बनाओगी क्या? कल कहा नहीं था कि माँ आ रही हैं?’ क्रुद्ध तो बहुत थे खन्ना अंकल पर परेशान भी थे कि हमेशा की तरह मम्मी एक टांग पर क्यों नहीं खड़ी थीं।

‘बस गेम ख़त्म ही होने वाला है।’ राहुल ने कहा तो असहज सी मम्मी रुक गईं। खन्ना-अंकल राहुल को घूरने लगे। फिर गंभीर आवाज में बोले,

‘अपने कमरे में जाओ राहुल।’ राहुल उठकर रसोई घर में चला गया। मम्मी भी उसके पीछे-पीछे रसोई में चली आईं; मम्मी को उसकी और उसे मम्मी की बहुत ज़रूरत थी। 

‘बहुत सर चढ़ा रखा है छोकरे को इसने, तू तो कह रहा था, वह नीचे ही नहीं आता।’ खन्ना-अंकल की मां की भद्दी और झगड़ालू आवाज़ सुनाई दी।

‘अम्मा अब तुम ही ठीक करना इसे। गोद में बिठाकर खाना खिलाती हैं अब तक,’ खन्ना-अंकल ज़ोर से बोले ताकि मम्मी और राहुल रसोई में सुन सकें। एकाएक मम्मी सकपका गई थीं पर राहुल के मुसकुराने पर वह भी मुसकुराने लगीं।

‘घर तो बस ठीक ठाक है, मेरा पूजा का कमरा कहां जाएगा?’ अम्मा ने पूछा। खन्ना अंकल ने इशारे से शायद उन्हें चुप कर दिया था। कुछ गड़बड़ थी। रसोई से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी। दबे पांव खन्ना-अंकल रसोई में चले आए थे। चाय तैयार थी; मम्मी मेहमानों को निरादर कभी नहीं कर पायेंगी, यह राहुल जानता था। थोड़ी सी हिम्मत से काम ले तो राहुल मम्मी को जिता सकता था। वह मन ही मन हिसाब लगा रहा था कि उसका पत्र दादा जी को कब मिलेगा, कब वह दिल्ली आ जाएंगे, तब तक कुछ तिकड़म लगानी पड़ेगी। कहीं उन्हें दादी न रोक लें, यही डर था राहुल को। पत्र पाकर दादाजी रूकेंगे नहीं, दादी कुछ भी कहें। मम्मी उनका फिर भी पूरा सम्मान करती हैं। एक बार राहुल ने मम्मी से पूछ ही तो लिया था, ‘दादी आपको बुरा-भला कहती रहती हैं, फिर भी आप उनके पावं छूती हैं, क्यों?’

‘उनका जवान बेटा स्वर्ग सिधार गया है न, इसलिए। वह उनको बहुत प्यार करती थीं।’ राहुल ने सोचा भला यह भी कोई बात हुई। 

‘अगर मैं मर जाऊं तो क्या आप मेरी वाइफ़ को गालियां देंगी?’ मम्मी रोती रही घंटों; नमक से राहुल की नज़र उतारी, ‘तेरे दुःख भगवान मुझे दे दें, मेरा राजा बेटा तो हज़ारों साल जियेगा।’ दादी और मम्मी भी कितनी ‘वियर्ड’ हैं।

अम्मां नाश्ते पर मानो टूट ही तो पड़ीं; चाय में भिगो-भिगो कर वह बिस्कुट्स खा रही थीं और खन्ना अंकल उन्हें घूरते हुए ऐसा करने से रोक रहे थे।

‘कुछ पूजा पाठ भी करो हो कि नईं?’ अम्मा ने चाय में से भीगे हुए बिस्कुट को निकालते हुए पूछा।

‘जी हां,’ मम्मी ने छोटा सा जवाब दिया।

‘सुकर है। चाय में नेक इलाची तो डालती,’ मम्मी उठकर दूसरी चाय बनाने लगीं। अम्मां उनके पीछे पीछे चली आईं।

‘ठहर ला इलाची निकाल, मैं मसाला बना दूं। हमारे घर में भी खत्म हो गया है।’ 

मम्मी ने इलायची की बोतल निकाल कर उन्हें पकड़ा दी; अम्मां की आंखें फैल गईं। एक साथ इतनी सारी इलायचियां तो उन्होंने जीवन में कभी नहीं देखी थीं। आंख बचाकर मुट्ठी भर इलायची उन्होंने अपने ब्लाउज़ में खोंस लीं। राहुल देख रहा था सब।

‘तू यहां क्या कर रहा है रे? जा अपने कमरे में पढ़।’ मम्मी ने इशारे से राहुल को अपने कमरे में जाने को कहा। बैठक से गुज़रा तो खन्ना अंकल अख़बार के कोने से उसे यूं घूर रहे थे कि मानो उसे मार ही डालेंगे। 

‘हम सीसे की पिलेट में नहीं खाते। तुमारे हियां इस्टील की थाली हो तो दो।’ अम्मां खाने की मेज़ पर डोंगो के इंस्पैक्शन में लगी थीं। मम्मी ने पूजा की थाली लाकर उन्हें दे दी तो वह उसे भरने लगीं कि जैसे खाना कहीं भागा जा रहा था। अपनी थाली लगा कर वह बेटे की तरफ घूमीं,

‘महेस, तू बी ले न,’ जब खन्ना-अंकल ने भी अपनी प्लेट लगा ली तो राहुल को आवाज़ देकर मम्मी ने भी अपना खाना परोस लिया।

‘हमारे हियां तो कोई पैली बार घर आये है तो पूरियां ई उतारी जाएं है।’

‘अम्मा आजकल पूरी कौन खाता है, वह भी शाम के वक्त?’ खन्ना अंकल ने कहकर मम्मी को ऐसे देखा कि जैसे यह कहकर उनपर अहसान किया था।

‘मैं तो रोज महेस को एक-एक करके गर्म रोटी देती हूँ, पूंछो इससे?’ अम्मां ने कहा। राहुल ने सोचा हर शाम को तो खन्ना अंकल यहीं खाना खाते हैं, दोपहर को दफ्तर में खाते होंगे, फिर अम्मां कब उन्हें गर्म रोटी खिलाती होंगी।

‘खीर में खांड कमती है,’ कहते हुए अम्मां पूरी कटोरी मिनटों में सटक गईं। काफी रात हो चुकी थी पर वे दोनों जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। 

एक झटके से राहुल के दिमाग में कौंधा की कहीं ये खन्ना अंकल की नयी चाल न हो। उन्हें रात को ठहराने का मतलब था, एक नई शुरूआत। वह कांप गया; कुछ खाली बर्तन उठाकर वह रसोई की ओर लपका। 

‘मम्मी, इन्हें आप कहीं रूकने को तो नहीं कहेंगी?’ राहुल की आवाज़ और आंखों का भय मम्मी के हृदय में उतर गया; उन्हें संभलने का समय मिल गया। शायद उन्हें इस बात का अनुमान भी न था।

उनकी ‘नहीं’ में दम न था किंतु राहुल की पूर्व चेतावनी उन्हें कुछ मज़बूत कर गई थी। लंबी सांस ले वह सौंफ सुपारी लिए कमरे में आईं। राहुल को अब तक मम्मी के आसपास मंडराता देख खन्ना अंकल बोले,

‘सुबह स्कूल नहीं जाना क्या?’

‘इसकी कल छुट्टी है,’ मम्मी ने जवाब दिया और राहुल को अपने से चिपटा लिया। 

‘ये मरा घुटनों का दर्द भी रात को ही शुरू होता है’ अम्मां अपने घुटनों को पीटती हुई बोलीं।

‘तुमसे कहा था न कि पांव ऊपर करके बैठी रहना,’ अंकल कुछ क्रोध में बोले। राहुल को लगा कि इस नौटंकी पर वह तालियां बजाए किंतु मम्मी लज्जित सी लग रही थीं कि उन्हें अम्मां से रुकने के लिए कहना चाहिए। उनका पसीने से लथपथ हाथ राहुल के हाथ में था किंतु राहुल नहीं पिघला और न ही वह मम्मी को पिघलने देगा। 

अम्मां आंखों ही आंखों में बेटे से पूछ रहीं थीं कि अब वह क्या करें। खन्ना-अंकल मम्मी के पास से ऐसे गुज़रे कि जैसे कोई सांप सरसराता हुआ निकल गया हो।

‘झूठे मुंह ही रुकने को कह देतीं तो क्या हम रुक जाते?’ 

मम्मी फिर भी चुप रहीं; राहुल की पकड़ मम्मी की उंगलियों पर मज़बूत थी। ग़लती से भी यदि मम्मी ने अब मुंह खोला तो ये दोनों रूक जाएंगें और आज की रात के बाद कई रातों तक, शायद कभी न जाने के लिए। खन्ना-अंकल जूते बांधते हुए घंटों लगा रहे थे। 

‘ला बची खीर ही रख दे,’ हार कर अम्मां बोलीं तो मम्मी झट रसोई में चली गईं और अम्मां भी उनके पीछे हो लीं। राहुल स्वाभिमानी था; चाहते हुए भी वह रसोई में नहीं गया। खन्ना-अंकल ने उसे घूर कर डराना चाहा था किंतु राहुल बिना पलकें झपकाए उनकी आंखों में देखता रहा। कुछ देर के बाद उन्होंने अपनी नज़रें स्वयं हटा लीं; उनके कंधे हताशा में झुक गए।

खन्ना-अंकल से निपट कर राहुल रसोई में चला आया; मम्मी ने पूरा खीर का पतीला एक प्लास्टिक के डिब्बे में उलटकर अम्मा को दे दिया था।

‘एक बात पूछूं, कित्ते पैसे देता है महेस तुझे?’ अम्मां की बात सुनकर मम्मी को सांप सूंघ गया था। 

‘अंकल तो मम्मी से पैसे लेते रहते हैं।’ राहुल ने गुस्से से कहा तो मम्मी ने उसे चुप हो जाने का इशारा किया। 

‘हय राम, मुआं मुजसे तो कहता रहा कि....’ दनदनाती हुई अम्मां रसोई से बाहर निकल गईं। दरवाज़ा धम्म से बंद हुआ तो राहुल चिटकनी लगाने दौड़ा। उसे ज़ोर की नींद आ रही थी किंतु मम्मी का ध्यान बंटाना आवश्यक था। मम्मी ने जाने क्यों कहा था कि कल राहुल की छुट्टी है। शायद, वह डर रहीं थी कि कल दिन में आकर खन्ना-अंकल उनसे कहीं जवाब-तलब न करें। राहुल मन ही मन मुसकुराया; मम्मी इतनी बुद्धु भी नहीं कि जितना राहुल उन्हें समझता आया था। सिर्फ डरपोक थीं। खन्ना अंकल दीवार बन गए थे मम्मी और समाज के बीच; सबने सम्बन्ध तोड़ लिए थे मम्मी से। वह स्वयं कितना कमजोर संबल था, राहुल ने सोचा। उसे दादा जी की बात याद आई कि एक सरकंडा कमज़ोर हो सकता है पर कई मिल जाएं तो वे मज़बूत हो जाते हैं। 

बारह साल का राहुल किशोर बन गया था, उसकी मम्मी ने यह आज ही जाना। कितना गर्व हो रहा था उन्हें आज अपने बेटे पर। राहुल की छोटी सी मुट्ठी ने उन्हें आज न केवल हिम्मत ही दी थी, उनमें आशा भी जगा दी थी। उन्हें केवल आज लगा था कि वह अकेली नहीं थीं। 

रात के ग्यारह बज रहे थे; दोनों बैठे सांप-सीढ़ी खेल रहे थे; दोनों सीढ़ियां चढ़ते चले जा रहे थे; सांपो की क्या मजाल की उनके पास भी फटक जाएं।

एक दूसरे को जिताने के लिए वे दोनों बेईमानी कर रहे थे। 

-दिव्या माथुर, ब्रिटेन
 ईमेल: divyamathur1974@gmail.com

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