देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 
दे, मैं करूँ वरण (काव्य)     
Author:सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' | Suryakant Tripathi 'Nirala'


दे, मैं करूँ वरण
जननि, दुःखहरण पद-राग-रंजित मरण ।

भीरुता के बँधे पाश सब छिन्न हों;
मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों,
आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुसरण ।
लांछना इंधन, हृदय-तल जले अनल,
भक्ति-नत-नयन मैं चलूँ अविरत सबल
पारकर जीवन-प्रलोभन समुपकरण ।

प्राण-संघान के सिन्धु के तीर मैं,
गिनता रहूँगा न, कितने तरंग हैं,
धीर मैं ज्यों समीरण करूँगा तरण ।

- सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला'
[ वीणा मासिक, जून 1935 ]

 

Previous Page  | Index Page  |   Next Page
 
 
Post Comment
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश