भारतीय नवजागरण  (विविध)

Print this

Author: गोलोक बिहारी राय

राष्ट्रीय चेतना का प्रवाह प्रत्येक समाज, क्षेत्र की अपनी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक परिस्थितियाँ होती है। परिस्थितियाँ-घटनाएं और जन सामान्य की चितवृति की पारस्परिक टकराहट से समाज में आधारभूत बदलाव आते रहते हैं। जब देश पर बाह्य, यवन-तुर्क आक्रमण हुए तब इन आक्रमणों से जन सामान्य एवं समाज की सांस्कृतिक पहचान धुँधलाने लगी। उस काल खण्ड में स्पष्ट रूप से सामाजिक चेतना की वृत्ति में ईश्वर का कहीं न कहीं स्थान किसी न किसी रूप में जन सामान्य में व्याप्त रहा। जिसे भारतीय साहित्य में भक्तिकाल के नाम से जाना गया। इस सांस्कृतिक पहचान को भक्तिकालीन कवियों ने ज्ञानमार्ग, प्रेममार्ग और भक्ति पूरक साहित्य के माध्यम से व्यक्त किया। यह जन सामान्य की चितवृति और तत्कालीन परिवेश की टकराहट का सहज स्वाभाविक परिणाम था।

समाज में वैज्ञानिक तकनीकी और विकास तथा शिक्षा के फलस्वरूप अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं एवं व्यवहारों की विवेक सम्मत मूल्यांकन की शुरुआत की। आज का भारतीय नवजागरण सामाजिक-राजनैतिक खायी के वैचारिक पुनर्मूल्यांकन का वैचारिक साक्ष्य है। यह सत्य है कि एक ओर सम्पन्न, सक्षम सामाजिक-राजनैतिक वर्ग सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक तीनों मोर्चों पर लड़ने के लिए समाज में झूठी विषमता, अस्पृश्यता, पिछड़ापन का खोखला, छद्म नारा देकर समाज और राष्ट्र को तोड़ने, विभाजित करने का कुत्सित प्रयास कर अपनी स्वार्थ सिद्धि कर रहा है तो वहीं दूसरी ओर पीड़ित जन अपनी पहचान और अधिकार के लिए मानवीय मूल्यों को पुनः परिभाषित करने का कार्य कर रहा है।

महात्मा ज्योति फूले और बाबा साहब अम्बेडकर ने इन पीड़ित जनों का सफल नेतृत्व प्रदान किया। उन्होंने महसूस किया कि हम अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक और राष्ट्रीय चेतना को अक्षुण रखते हुए अपनी पहचान को प्राप्त करने का सफल संघर्ष कर सकते हैं। इसलिए अपनी पहचान की लड़ाई लड़ते हुए भी भारतीय-मानस व जन-मानस से कभी भी विलग नहीं हुए। उन्होंने पीड़ित समाज में एक नई ऊर्जा प्रवाहित की जिसने राष्ट्रीय पहचान के साथ-साथ व्यक्ति की पहचान और अधिकार को स्पष्ट दिशा प्रदान की। भारतीय नवजागरण के सकारात्मक परिणामों एवं स्वतंत्रता पश्चात संवैधानिक तथा विधि-व्यवस्थाओं के चलते आज मानवीय-समानता, सामाजिक-समन्वय तथा सामाजिक-न्याय , राष्ट्रीय-एकता और राष्ट्रीय जनभाव की अक्षुणता की अनुगूँज सर्वत्र चहुँ दिशा सुनाई देने लगी है। "एक राष्ट्र - एक जन - एक मूल्य" यह विचार फैल रहा है। इसे महात्मा फूले व बाबा साहब अम्बेडकर ने अपनी कृति से सदा सर्वथा चरितार्थ किया। इसी के साथ सामाजिक परिस्थितियाँ भी बदल रही हैं। समता, स्वतंत्रता, बंधुत्व और न्याय जैसी मानवीय मूल्यों का बोध समाज के अंदर एक क्रांति के रूप में, वर्तमान के युगधर्म के रूप में दिखायी पड़ रहा है। फलस्वरूप राष्ट्र- समाज - व्यक्ति के जीवन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन की धारा चल पड़ी है।

- गोलोक बिहारी राय
ई-मेल: golokrai.gbr@gmail.com

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें