क्या कीजे (काव्य)

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Author: प्रदीप चौबे

गरीबों का बहुत कम हो गया है वेट क्या कीजे 
अमीरों का निकलता आ रहा है पेट क्या कीजे

हमारी अरज़ियाँ कैसे नहीं उड़तीं हवाओं में 
नहीं रख पाए हम चाँदी का पेपरवेट क्या कीजे

वे नेता-पुत्र थे, खिड़की से भीतर हो गए दाख़िल 
हमारे वास्ते हैं बंद सारे गेट क्या कीजे

महज़ इक चाय में खुलने लगा दफ़्तर का चपरासी 
दनादन गिर रहे हैं आदमी के रेट क्या कीजे

हमें जिससे मुहब्बत थी, उसे अब आठ बच्चे हैं 
तकल्लुफ में बिरादर हो गए हम लेट क्या कीजे

हमारे भाग में तो बस अँगूठा छाप प्रेमी हैं
रही कोरी की कोरी जिंदगी की स्लेट क्या कीजे

-प्रदीप चौबे 

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