आगे गहन अँधेरा (काव्य)

Print this

Author: नेमीचन्द्र जैन

आगे गहन अँधेरा है मन‚ रुक रुक जाता है एकाकी
अब भी हैं टूटे प्राणों में किस छवि का आकर्षण बाक़ी?
चाह रहा है अब भी यह पापी दिल पीछे को मुड़ जाना‚
एक बार फिर से दो नैनों के नीलम-नभ में उड़ जाना‚
उभर उभर आते हैं मन में वे पिछले स्वर सम्मोहन के‚
गूंज गये थे पल भर को बस प्रथम प्रहर में जो जीवन के;
किंतु अंधेरा है यह‚ मैं हूं मुझको तो है आगे जाना-
जाना ही है पहन लिया है मैंने मुसाफ़िरी का बाना।
आज मार्ग में मेरे अटक न जाओ यों‚ ओ सुधि की छलना!
है निस्सीम डगर मेरी मुझको तो सदा अकेले चलना‚
इस दुर्भेद्य अंधेरे के उस पार मिलेगा मन का आलम;
रुक न जाए सुधि के बांधों से प्राणों की यमुना का संगम‚
खो न जाए द्रुत से द्रुततर बहते रहने की साध निरंतर‚
मेरे उस के बीच कहीं रुकने से बढ़ न जाय यह अन्तर।

-नेमीचन्द्र जैन

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें