भारत की परंपरागत राष्ट्रभाषा हिंदी है। - नलिनविलोचन शर्मा।

तीन कवितायें (काव्य)

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Author: प्रदीप मिश्र

हमारे समय का फ़लसफ़ा


इकट्ठे हुए थे सारे जीव एक ज़गह
फुनगी पर बैठी चिडिय़ा
गर्वोन्नत शेर
रेत में अलसाया मगरमच्छ
इधर-उधर रेंगते कीड़े-मकोड़े
हरी कालीन जैसी बिछी घास
और टीले पर बैठा मनुष्य

प्रकृति के सारे जाने-अनजाने जीव
इकट्ठे हुए थे एक जगह
सबकी समस्या थी जीवन की
जीवित बचे रहने की

इस विकट समस्या की बहस में
उपस्थित हर जीव
दूसरे के लिए भोजन की थाली था
कोई भी एक नष्ट होता तो
दूसरा स्वंय ही नष्ट हो जाता
फिर कैसे कोई किसी को खाता
और अगर खाता नहीं तो जीवित कैसे रहता

मनुष्य ही ऐसा था
जो किसी का भोज्य नहीं था
जानता था जीवन जीने की कला
बुरे दिनों में घास की रोटियाँ खाकर भी
बचा सकता था अपने आपको
अच्छे दिनों में शेर का शिकार करता था
इसलिए टीले पर बैठा
मुस्करा रहा था

नहीं सूझा किसी को भी
इस विकट समस्या का हल
तब मनुष्य ने ही सुझाया
प्रेम में सबकुछ ज़ायज़ होता है
प्रेम में कोई नष्ट नहीं होता
जितना व्यापक प्रेम उतना ही ज्यादा जीवन

सबको सूझ गया विकट समस्या का हल
बकरी को घास से प्रेम हो गया
और वह प्रेम से चरने लगी घास
शेर को बकरी से हो गया प्रेम
और वह प्रेम से बकरी को खा गया

तबसे प्रेम का सिलसिला खूब फलाफूला
अब कभी भी / कहीं भी
किसी को / किसी से
प्रेम हो जाता है।

- प्रदीप मिश्र

 

#

ठीक समय


घण्टा घर की घड़ी में
सुबह के दस बज रहे थे

जो साइकिल पर टिफिन लटकाये
गुजरा है अभी-अभी
उसकी घड़ी में सुबह के आठ

कार से कीचड़ उड़ाते हुए
जो महानुभाव गुजरे हैं अभी-अभी
उनकी घड़ी में रात के बारह

सामने बैठा बनिया बार-बार
अपनी देशी घड़ी को आगे बढ़ा रहा है
सेल्समैन की विदेशी घड़ी से
पिछड़ती जा रही है उसकी घड़ी

ठीक समय जानने की गरज़ से
घड़ीसाज़ के पास पहुँचा
उसकी दूकान पर टँगी
सारी घडिय़ों में समय अलग-अलग था
अपनी आँख पर लगे लेंस को दिखाते हुए
उसने कहा
ठीक समय का पता होता तो
इसमें क्यों फोड़ता अपनी आँखें

एक समय था जब रेडियो के समाचारों से पहले
बताया जाता था समय
कुछ धनी लोग इस समय से
अपनी घड़ियाँ मिला लेते थे
बाकियों के पास न तो घड़ी थी न रेडियो
इसलिए उनका समय
कभी भी ठीक नहीं होता था

ठीक समय
पंडितजी निकालते रहे
पंचाँगों और पोथियों से
और नहीं निकाला कभी भी ठीक

अब तो नक्षत्र और तारे भी गड़बड़ाने लगे हैं
फिर कहाँ होगा ठीक समय का पता

चलिए दादी अम्मा के पास
सुनते हैं कोई किस्सा कहानी
मिल जाए शायद
किसी राजा के तहख़ाने में बन्द
ठीक समय।

- प्रदीप मिश्र

#

अन्तरिक्ष


अन्तरिक्ष
एक कौतूहल
एक जिज्ञासा
रहस्य का कुँआ
जिसमें भरा हुआ है भय

पूर्वजों ने बताया था
अन्तरिक्ष में देवलोक है
वहाँ स्वर्ग और नरक का फै़सला होता है
मृत्यु के बाद हम सब पेश होते हैं
अन्तरिक्ष में स्थित किसी न्यायालय में
जहाँ होता हमारे अच्छे-बुरे कर्मों का हिसाब
जीवन भर भयभीत रहते हम
अन्तरिक्ष के इन न्यायालयों से

फिर विज्ञान ने तोड़े सारे विभ्रम
नये सिरे से जाना हमने अन्तरिक्ष को
धीरे-धीरे पता चला
ग्रहों-उपग्रहों का समीकरण
चाँद-सितारों के चमकने का कारण
फिर आकाशगंगा
उडऩ तश्तरियों
और अन्तरिक्ष मानव का खौफ़
विज्ञान ने ही दिखाया
विकास के चरण में
विज्ञान ने शुरू कर दी घोषणाऐँ
कि फ़लाँ तारीख को
फ़लाँ अन्तरिक्ष तत्व टकराएगा पृथ्वी से
और नष्ट हो जाएगी पृथ्वी

अन्तरिक्ष फिर बदल गया
भय के कुँए में
विज्ञान ने इसे जब तक
एक तिहाई जाना
कई तिहाई बदल गया इसका रहस्य

भय के इस पिटारे को
सबसे बेहतर जाना बच्चों ने

उनका मामा रहता है अन्तरिक्ष में
उनके पूर्वज़ चमकते हैं वहाँ
सितारों की तरह
सूरज काका को वे रोज़ प्रणाम करते हैं
और बुढिय़ा दादी वहाँ बैठी है
जो चरखा कातते हुए
किस्से कहानी सुनाती रहती है

बच्चों के इस अन्तरिक्ष में
छोड़ दो मुझे
और जिद्द करने दो
चन्दा मामा के लिए।

- प्रदीप मिश्र

ई-मेल: mishra508@gmail.com


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