वर्ष नया (काव्य)

Print this

Author: अजित कुमार

कुछ देर अजब पानी बरसा ।
बिजली तड़पी, कौंधा लपका ।
फिर घुटा-घुटा सा,
घिरा-घिरा
हो गया गगन का उत्तर-पूरब तरफ़ सिरा ।

बादल जब पानी बरसाए,
तो दिखते हैं जो,
वे सारे के सारे दृश्य नज़र आए ।
छप्-छप्,लप्-लप्,
टिप्-टिप्, दिप्-दिप्,-
ये भी क्या ध्वनियां होती हैं !!
सड़कों पर जमा हुए पानी में यहाँ-वहाँ
बिजली के बल्बों की रोशनियाँ झाँक-झाँक
सौ-सौ खंडों में टूट-फूटकर रोती हैं।

यह बहुत देर तक हुआ किया ...

फिर चुपके से मौसम बदला।
तब धीरे से सबने देखा-
हर चीज़ धुली,
हर बात खुली-सी लगती है
जैसे ही पानी निकल गया !

यह जो आया है वर्ष नया !-
वह इसी तरह से खुला हुआ,
वह इसी तरह का धुला हुआ
बनकर छाए सबके मन में ,
लहराए सबके जीवन में!

दे सकते हो ?
-दो यही दुआ !

- अजितकुमार

[ अकेले कंठ की पुकार, राजकमल प्रकाशन ]

 

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें