अदम गोंडवी के जन्मदिन पर विशेष (विविध)

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Author: अजीत कुमार सिंह

भारत को आजाद हुए 2 माह ही बीता था, लोगों में आजादी के जश्न की खुमारी छायी हुई थी। चारों तरफ आजाद भारत की चर्चाएँ हो रही थीं। कहीं-कहीं पर रह-रह कर उत्सव भी मनाये जा रहे थे। इन्हीं उत्सवों के मध्य एक उत्सव गोण्डा के आटा ग्राम में 22 अक्टूबर, 1947 को मनाया गया, जिसका मुख्य कारण राम सिंह का जन्म था।


राम सिंह का जन्म वैसे तो आजाद भारत में हुआ था किन्तु स्थिति परतंत्र भारत के जैसी थी। तत्कालीन भारत की जो सबसे बड़ी समस्याएँ थीं वे आर्थिक, शैक्षिक, राजनीतिक व धर्मिक थीं। राजनीतिक क्षेत्र में कांग्रेस का बोलबाला था किन्तु अर्थ, शिक्षा व धर्म पर सत्तापक्ष का पूर्ण नियंत्रण न हो पाया था, जिसके परिणामस्वरूप अशिक्षा, भुखमरी, कुपोषण, महामारी तथा धार्मिक दंगे बढ़े। अभाव और सामाजिक उन्मादों का प्रभाव गोंडवी जी पर पड़ा साथ ही अवध में जन्म होने के कारण आप पर गंगा-जमुनी तहजीब का भी असर पड़ा। परिणामस्वरूप आपकी लेखनी सेकुलरवादी हुई। अदम गोंडवी भारतीय इतिहास की समझ रखते थे, ऐसे में हो रहे दंगों के मध्य अदम को कहना पड़ा-

 

गर गलतियाँ बाबर की थीं, जुम्मन का घर फिर क्यों जले।
ऐसे नाजुक वक्त में, हालात को मत छेड़िए।।


राम सिंह साहित्य जगत में ‘अदम गोंडवी' के नाम से विख्यात हुए। अदम ने तत्कालीन धार्मिक कट्टरता को देखकर ‘कबीर' की तरह समाज के उपदेशक एवं सुधारक की भांति बड़ी ही स्पष्टता के साथ कहा-


हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है।
दफ्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िए।।


इसी कविता की अंतिम कड़ी के द्वारा आपने समाज को ये सुझाव दिया-


छेड़िए एक जंग, मिल जुलकर गरीबी के खिलाफ।
दोस्त, मेरे मजहबी, नग्मात को मत छेड़िए।।


अदम गोंडवी अपनी कविता के द्वारा सामाजिक सहिष्णुता के पक्षकार के रूप में चर्चित हुए। आपने अपनी गजलों के द्वारा बढ़ती साम्प्रदायिकता और असहिष्णुता पर प्रश्नचिह्न खड़े किए।


अदम ने अपनी गज़लों को माशूक के जलवों पर न खर्च कर गाँव की गरीबी, अशिक्षा, जातिवाद, भ्रष्टाचार तथा विधवाओं की समस्याओं पर खर्च किया।


भूख के एहसास को शेरो-सुखन तक ले चलो
या अदब को मुफलिसों की अंजुमन तक ले चलो।
जो गजल माशूक के जलवों से वाकिफ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिकन तक ले चलो।।


अदम गोंडवी स्वयं गाँव के रहने वाले थे इसलिए गाँवों का ताना-बाना उन्हें खूब पता था। प्रधान व विधायक आदि किस तरह से गाँव की भोली-भाली जनता को लूटते हैं। चुनावों में विधायक लोग जो गाँवों में रामराज लाने की बात करते हैं, वही चुनाव के बाद अपने क्षेत्र में दिखाई तक नहीं पड़ते और रामराज होता है सिर्फ विधायक निवास में।


जनता के साथ विश्वासघात करने वाले जनता के प्रतिनिधियों की गोंडवी जी ने खूब खिंचाई की है। गाँव के सामन्तवादी लोग गरीब, मजदूरों की बहू-बेटियों की अस्मिता पर वार करने वालों को आपने अपनी कविता में प्रदर्शित किया है।


अदम जी का जन्म आजाद भारत में हुआ था किन्तु समस्याएँ जस की तस थीं। सत्ता भारतीयों के हाथ में जरूर थी किन्तु सामाजिक प्रगति के नाम पर लोगों को बेवकूफ बनाया जा रहा था। बुद्धिजीवी वर्ग और सत्ता पक्ष के द्वारा जनता को लूटा जा रहा था। अदम जी की पीड़ा सामाजिक असमानता को लेकर थी। वे चाहते थे कि समाज समान रूप से प्रगति करे किन्तु ऐसा सम्भव न हुआ इसके पीछे बहुत से कारणों में से एक कारण भ्रष्टाचार भी था। ऐसे में अमीर और अमीर तथा गरीब और गरीब होता गया। ऐसे में गाँवों का विकास भी रूका जिसका वर्णन आपने कुछ इस तरह किया-


जो उलझकर रह गई है, फाइलों के जाल में।
गाँव तक वो रोशनी, आएगी कितने साल में।।


तत्कालीन छद्म समाजवाद व सत्तानशीन नेताओं की मानसिकता को आपने अपनी गज़लों के द्वारा पर्दाफास किया। सत्ता के खोखलेपन को आपने कुछ यूँ उजागर किया-


आँख पर पट्टी रहे और अक्त पर ताला रहे
अपने शाहे वक्त का यूँ मर्तबा आला रहे।

तालिबे शोहरत है कैसे भी मिले मिलती रहे
आयदिन अखबार में प्रतिभूति घोटाला रहे।

एक जन सेवक को दुनिया में अदम क्या चाहिए
चार छः चमचे रहें माइक रहे माला रहे।।


बेरोजगारी, मुफलिसी, अपराध को सरकारी तंत्र दूर नहीं कर पा रहा था और न ही सामाजिक व्यवस्था से न्याय हो पा रहा था। सरकारी तंत्र में लूटम-लूट मची हुई थी। तंत्र पूर्णतः विफल था, ऐसी व्यवस्था से अदम जी नाराज थे। जनता में त्राहि-त्राहि मची हुई थी और राजनेताओं के घर पर रामराज था। ऐसी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने के लिए आपने जनता से आह्वान किया-

जनता के पास एक ही चारा है बगावत।
यह बात कर रहा हूँ मैं होशोहवास में।।


अदम गोंडवी जी हिन्दी के उन चंद गज़लकारों में हैं जिनकी गज़लों से भारतीय अस्मिता के ताप को महसूस किया जा सकता है। आप प्रगतिशील लेखक के रूप में सदैव याद किए जायेंगे। आपके साहित्य से गरीबों, मज़लूमों को हमेशा बल मिलता रहेगा। अदम जी की मृत्यु 18 दिसम्बर, 2011 को लखनऊ के संजय गाँधी हॉस्पिटल में हुई।


- अजीत कुमार सिंह
  रिसर्च फेलो,
  हिन्दी विभाग
  लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ

 

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