जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

दो ग़ज़लें  (काव्य)

Print this

Author: कृष्ण सुकुमार | Krishna Sukumar

झील, समुंदर, दरिया, झरने उसके हैं
मेरे  तश्नालब  पर  पहरे  उसके  हैं

हमने दिन भी अँधियारे में काट लिये
बिजली, सूरज, चाँद-सितारे उसके हैं

चलना मेरी ज़िद में शामिल है वर्ना
उसकी मर्ज़ी,  सारे रस्ते  उसके  हैं

जिसके आगे हम उसकी कठपुतली हैं
माया  के  वे  सारे  पर्दे  उसके  हैं

मुड़ कर पीछे शायद ही अब वो देखे
हम पागल ही आगे-पीछे  उसके  हैं

- कृष्ण सुकुमार

 

2)

ताज़े-ताज़े ख़्वाब सजाये रखता है
यानी इक उम्मीद जगाये रखता है

उसको छूने में अँगुलि जल जाती हैं
जाने कैसी आग दबाये रखता है

अपने दिल की सबसे कहता फिरता है
बाक़ी सबके राज़ छुपाये रखता है

अपनापन तो उसके फ़न में शामिल है
दुश्मन को भी  दोस्त बनाये रखता है

उसका होना तय है, दिखना नामुम्किन
कैसी इक  दीवार  उठाये  रखता  है

काँटों के जंगल में चलकर नंगे पाँव
वो अपना ईमान  बचाये  रखता  है

- कृष्ण सुकुमार
  153-ए/8, सोलानी कुंज,
  भारतीय प्रौद्योकी संस्थान

  रुड़की- 247 667 (उत्तराखण्ड)

 

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

सर्वेक्षण

भारत-दर्शन का नया रूप-रंग आपको कैसा लगा?

अच्छा लगा
अच्छा नही लगा
पता नहीं
आप किस देश से हैं?

यहाँ क्लिक करके परिणाम देखें

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश