संध्या नायर की दो ग़ज़लें  (काव्य)

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Author: संध्या नायर

कलम इतनी घिसो

कलम इतनी घिसो, पुर तेज़, उस पर धार आ जाए
करो हमला, कि शायद होश में, सरकार आ जाए

खबर माना नहीं अच्छी, मगर इसमें बुरा क्या है
कि जूते पोंछने के काम ही अखबार आ जाए

दिखाओ ख्वाब जन्नत के, मगर इतना न बहकाओ
कहीं ऐसा न हो, वो बेच कर घर बार आ जाए

जिसे हर बज़्म ने तहसीन से महरूम रक्खा है
हमारी बज़्म में या रब, वही फनकार आ जाए

मज़ा छुट्टी का दोनों ओर से आधा हुआ जानो
अगर इतवार के दिन ही कोई त्योहार आ जाए

इसी उम्मीद से हर रोज़ खुलता है कुतुबखाना
दवा को ढूंढता, शायद, कोई बीमार आ जाए

अभी पर्दा गिराने में ज़रा सी देर बाकी है
ये मुमकिन है कहानी में नया किरदार आ जाए

- संध्या नायर, ऑस्ट्रेलिया

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यकीनन पांच बरसों में

यकीनन पांच बरसों में कई मौसम बदलते हैं
मगर हम हैं कि फंसने को वही कांटे निगलते हैं

यहां दाढ़ी में तिनका ,अब कोई लेकर नहीं फिरता
कि अब चोरों के गालों के, गुलेगुलजार छलते हैं

खुदा दीवार इस दिल की, ज़रा नीची तो कर देते
खयालों के कई मेंढक, निकलने को उछलते हैं

हमारा काम है कहना, मगर ये भी हकीकत है
बुजुर्गों के तजुर्बों से, कहां बच्चे संभलते हैं

यहां मैडम ने सोचा है, वज़न कुछ कम किया जाए
वहां महरी के कंधों से सभी चिथड़े फिसलते हैं

दिला दो गेम, मोबाइल या आई-पैड ही ले दो
खिलौनों के लिए अब कौन से बच्चे मचलते हैं

ये किस गुस्ताख ने, फिर से, खुला छोड़ा है दरवाज़ा
समझ कर बाग इस दिल को, कई मौसम टहलते हैं

ये खारिश, ख्वाब में छुप छुप के मिलने का नतीजा है
कभी हम हाथ मलते हैं, कभी आंखे मसलते हैं

बता कर 'शाम' को, ढलने की, फिर ऐसी वजह दे दी
कड़ी हो धूप तो, घर से, ज़रा वो कम निकलते हैं

- संध्या नायर, ऑस्ट्रेलिया

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