जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

चल, भाग यहाँ से (कथा-कहानी)

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Author: दिलीप कुमार

“चल, भाग यहां से...जैसे ही उसने सुना, वो अपनी जगह से थोड़ी दूर खिसक गयी। वहीं से उसने इस बात पर गौर किया कि भंडारा खत्म हो चुका था। बचा-खुचा सामान भंडार गृह में रखा जा चुका था। जूठा और छोड़ा हुआ भोजन कुत्तों और गायों को दिया जा चुका था यानी भोजन मिलने की आखिरी उम्मीद भी खत्म हो चुकी थी।

उसने कुछ सोचा, अपना जी कड़ा किया और भंडार गृह के दरवाजे पर पहुंच गई।

उसे देखते ही अंदर से एक भारी-भरकम आवाज फटकारते हुए बोली-–“तू यहाँ तक कैसे आ गयी। चल, भाग यहाँ से।"

वो कातर स्वर में बोली--“अब ना भगाओ मालिक, अब तो सभी लोग खा चुके। कुत्ते और गायों को भी खाना डाल दिया गया है। अब कोई नहीं बचा।"

भारी भरकम आवाज, लंबी-चौड़ी, कद-काठी के साथ बाहर आ गयी और उस जगह का बड़ी बारीकी से मुआयना किया। उन्होंने इस बात की तस्दीक कर ली कि वहां पर कुत्तों, गायों और उनके विश्वासपात्र इकलौते बलशाली लठैत के अलावा कोई नहीं था।

बुलंद आवाज ने जनाना को भंडार गृह के अंदर बुला लिया।

तरह-तरह के पकवानों की रंगत और उसकी खुश्बू देखकर वो अपनी सुध-बुध खो बैठी, क्योंकि हफ्तों हो गए थे उसे दो वक्त का खाना खाए हुए।

मालिक ने एक पत्तल में सारे पकवान भर कर जब उसकी तरफ बढ़ाया तो पत्तल की तरफ झपट पड़ी क्योंकि भूख से उसकी अंतड़ियां ऐंठी जा रही थीं।

उसके हाथ पत्तल तक पहुंचते इससे पहले मालिक ने उसका हाथ पकड़ लिया और धीरे से कहा--“तेरा पेट तो भर जाएगा, लेकिन मेरा पेट कैसे भरेगा?"

वो रुआंसे स्वर में बोली--“पहले तुम ही खा लो मालिक। मैं उसके बाद बचा-खुचा या जूठा खा लूंगी।"

“मेरा पेट इस खाने से नहीं भरेगा," ये कहते हुए मालिक ने उसे अपने अंक में भींच लिया।

पहले वो सहमी, अचकचाई कि मालिक क्या चाहता है लेकिन फिर वो समझ ही गयी मालिक की चाहत, क्योंकि यही तो उससे तमाम मर्द चाहते हैं।

मालिक का प्रस्ताव सुनने के बाद उसने कहा--“इसके बाद तो खाना मिल जायेगा मालिक।"

“हां, खाना खाने को भी मिलेगा और ले जाने को भी, तो तैयार है ना तू?" मालिक ने कुटिल मुस्कान से पूछा।

उसने सर झुका लिया।

मालिक ने भंडार गृह से बाहर निकलकर अपने लठैत से कहा--“मैं अंदर खाना खा रहा हूँ। इधर किसी को आने मत देना। जब मैं खाकर बाहर आ जाऊं तब तू भी आकर खा लेना। समझ गया ना पूरी बात।"

लठैत ये सुनकर निहाल हो गया, उसने सहमति में सिर हिलाया।

मालिक ने अपनी भूख मिटानी शुरू कर दी, उधर वो बेबस जनाना सोच रही थी कि मालिक की ख़ुराक पूरी होते ही उसे इतना खाना मिल जाएगा कि उसकी बूढ़ी-अंधी माँ आज भरपेट भोजन कर सकेंगी और आज उसे किसी चौखट पर ये दुत्कार सुनने को नहीं मिलेगी कि “चल,भाग यहाँ से।"

-दिलीप कुमार

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