देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।

एक गाँव ऐसा भी… (विविध)

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Author: डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 

हमारा गाँव बहुत बड़ा है। दस हजार की आबादी है। सड़क, बिजली, पानी सब कुछ है। मंदिर-मस्जिद और पुस्तकालय भी है। लोगों को मंदिर-मस्जिद और मोबाइल से फुर्सत नहीं मिलती इसलिए पुस्तकालय पर ताला पड़ा रहता है। सरकारी अस्पताल है, किंतु वहाँ जाने वालों को बड़ी हीन दृष्टि से देखा जाता है। सच कहें तो अस्पताल खुद भी हीन स्थिति में है। डाक्साहब शहर से कभी आते नहीं इसलिए गाँव के सारे मरीज शहर जाते हैं। कहने को तो गाँव में सह-शिक्षा वाला सरकारी स्कूल भी है, लेकिन वहाँ विद्यार्थी नहीं दिखाई देते। जहाँ सरपंच की भैंस और मास्साब की तनख्वाह, दोनों बंधी-बंधाई है। भैंस दूध देती है, मास्साब शिक्षा व्यवस्था को दूह लेते हैं। बाकी विद्यार्थियों का क्या है, उनके लिए हैं ना भोले गांव की छाती पर गाढ़ दिया गया ‘अलां-फलां कान्वेन्ट’ स्कूल। सारे बच्चों की वैचारिक नस्ल वहाँ बदली जा रही है। बच्चे वहाँ पढ़कर अपने माँ-बाप को गंवारू समझना सीख रहे हैं और वहीं माँ-बाप जमीन बेचकर मोटी फीस भरते हुए अपने बच्चों को समझदार होना मान रहे हैं। कमाल की उलटबासी है। गाँव में हाथ से ज्यादा फोन हैं, पैरों से ज्यादा चहलकदमी। दरअसल, गाँव स्मार्ट हो चला है। 

इसी गाँव में एक बस अड्डा है। एक इसलिए कि एक ही बस आती है। चूंकि यहाँ सभी लोगों के पास अपने-अपने वाहन हैं, सो इस बस सेवा का लाभ वे ही ले पाते हैं जो वाहन-सुख से वंचित हैं। इसलिए अड्डे पर ज्यादा भीड़ दिखाई नहीं देती। ऐसे दीन-हीन जगहों पर कृतार्थियों की गिद्ध नजर हमेशा रहती है। एक दिन इसी नजर के चलते बस अड्डे से बस गायब हो गई और शेष रह गया सिर्फ अड्डा। अड्डे पर चाय की टपरी, बैठने के लिए आलीशान चबूतरे और गोपनीय बातें करने के लिए मधुशाला और धूम्रपान केंद्र खोल दिए गए। मधुशाला और धूम्रपान केंद्र के चलते लोगों को पैसा देकर बुलाने की जरूरत नहीं पड़ती। वे खुद अपनी जमापूंजी लुटाने यहाँ आ जाते हैं। ऐसी बिना बुलाई भीड़ को देखकर किस अवसरवादी की जबान न लपलपाएगी! ऐसे ही एक दिन कृतार्थियों के मुखिया ने अपने दर्शन दिए। वहाँ आने वाले लोगों के लिए मधुपान और धूम्रपान की सुविधा मुफ्त कर दी। मुफ्त मिले तो जहर पीने वालों की भी दुनिया में कमी नहीं। इस अवसर को भुनाने के लिए कृतार्थी के मुखिया ने अपनी मीठी-मीठी बातों से लोगों को फांसना शुरु किया। लोग मछली की तरह कांटे में फंसते चले गए। बहुत जल्द कृतार्थियों के मुखिया बहुत बड़े नेता बनकर उभरे। चुनाव हुआ और भारी मतों से गाँव के मुखिया बन बैठे। अब वे भोजन कम खाते हैं और जमीन ज्यादा। कहते हैं, ऐसा करने से ही उनका पाचन तंत्र बना रहता है। गाँव के लोग उनकी तारीफ के पुल बाँधते और कहते कि यह है बड़ा आदमी। कहते हैं, जब किसी का मुफ्त में प्रचार-प्रसार होने लगे तो समझ जाओ कि वह आदमी बहुत जल्द बुलंदियों पर होगा। छोटी मछलियों को खाकर बड़ी मछली बनने का खेल केवल तालाब में ही नहीं, जमीन पर भी बदस्तूर जारी है।

-डॉ सुरेश कुमार मिश्रा ‘उरतृप्त’ 
  मो. नं. 73 8657 8657  
  ईमेल : drskm786@gmail.com   

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