जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

स्काइप की डोर  (काव्य)

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Author: गुलशन सुखलाल

जिस दिन नेटवर्क नहीं मिलता
उस दिन का खाना
चूल्हे से सीधे फ़िज में जाता है

जिस दिन अमेरिका में होता है सरवर जाम
उस दिन अपनी पलंग पर
सपने धुन्धले दिखते हैं

बेटे का बाँधा हुआ ए.डी.एस.एल. का केबल
शामों को, बेबस कुकुर की तरह बाँध गया है
उस छोटे से कमरे में

पड़ोसी के हुल्लड़बाज़ बच्चे सूली से उतारने आते हैं
जब लैपटॉप की हैंग स्क्रीन पर
आँखें घण्टों लटकी रह जाती हैं

टीवी पर आया था
उसी से हाइटेक बनेगा मज़दूर बाप
उसी से बनेगी स्वावलम्बी गृहस्थ माँ
इसी से मज़बूत होंगे रिश्ते
खुशहाल होगा परिवार

अब तो कई साल हो गए

नाती-पोते ऑनलाइन ही
जन्मे.... बड़े हुए
बस अब दिखते कम हैं

रोज़ाना से सप्ताह में एक बार
अब हो पाती है बात
जिस दिन वे "खाली हो पाते हैं"
दैनिक संझा के समान यह कर्मकाण्ड
शुरू में पूरी चालीसा
फिर करपूर गौरं ...
आजकल अगरबत्ती के धुएँ की
तीन आवृत्तियों पर आकर खत्म हो जाता है

फिर भी जाने किस चमत्कार से
दोनों बूढ़ों का जीवन टिका हुआ है
स्काइप की इस डोर से

पड़ोसी के हुल्लड़बाज़ बच्चे
समझ गए हैं
इनकी अरथी के दर्शन
ऑनलाइन कराने होंगे
किसी बहाने से
वाइ-फ़ाइ लगाने को कह दिया है।

- गुलशन सुखलाल
  वरिष्ठ प्राध्यापक एवं अध्यक्ष, भाषा संसाधन केंद्र,
  महात्मा गांधी संस्थान, मॉरीशस

 

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