अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

29 दिसंबर की वह रात | संस्मरण (कथा-कहानी)

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Author: राजेश्वरी त्यागी

29 दिसंबर की रात। लगभग साढ़े ग्यारह बजे हम भोपाल आकाशवाणी के केंद्र निदेशक श्री शुंगलू के यहाँ से खाना खाकर लौट रहे थे।

मैंने घर लौटकर स्कूटर से उतरकर दरवाजा खोला और वह अपना शे'र गुनगुनाते हुए स्कूटर को अंदर ले आए :

दुकानदार तो मेले में लुट गए यारो,
तमाशबीन दुकानें लगा के बैठ गए।

अर्चना और आलोक कुछ देर पहले ही एक शादी से लौटे थे और अपनी-अपनी रजाइयों में दुबके वे शादी में हुए कार्यक्रमों पर बात कर रहे थे, वह मस्ती के साथ शेर गुनगुनाते हुए उन दोनों के पास जाकर बैठ गए। अर्चना ने कहा, "पापा, बड़ी मस्ती में हो आज!"

"अरे, हम कब मस्ती में नहीं रहे बेटे। आज भाभी जी ने वो बढ़िया खाना खिलाया कि बस मज़ा आ गया। तुम लोग सुनाओ, शादी कैसी रही?"

बच्चों ने बताया कि शादी बड़ी अच्छी रही। अर्चना बोली, "पापा, आज शादी में सत्येन आंटी-अंकल भी आए थे, लड़की वालों की तरफ़ से। उन्होंने आपकी कॉलेज लाइफ के चुटकुले सुनाकर हम लोगों को बेहद हँसाया।"

वह आकर पलंग पर लेटे, क्योंकि उनके हलका-सा सिरदर्द था कि बाहर ऑटोरिक्शा आकर रुका। रात को बारह बजे कौन हो सकता है, सोचती हुई मैं दरवाजे तक आई। देखा, छुटवा था, मुझे देखकर वह बोला, "चाचा जी हैं ?" मेरे दिमाग में उनके सिरदर्द की बात घूम रही थी। मैं कुछ कहती, इससे पहले ही वह बोल उठे, "क्या बात है, भाई छुटवा? अंदर आ जा।" मैं तो झुंझलाई हुई बाहर ही खड़ी रह गई और वह यह कहता हुआ अंदर पहुँच गया-"चाचा जी, आपको अभी चलना पड़ेगा। दरोगा बड़ा तंग कर रहा है।" उन्होंने उससे कुछ बातें और भी कीं और पूछीं। वह उनके पास बैठा हुआ सब बताता रहा। अचानक ही मुझे पुकारकर उन्होंने कहा, "राजो भई, ये छुटवा मुझे चलने को कह रहा है।" मैंने चिढ़ते हुए लेकिन उसकी उपस्थिति के कारण अपने को संयत रखते हुए कहा,"कहाँ जाओगे इस वक्त?"

मेरे रोकने के बावजूद वह पलंग से उठ खड़े हुए और बोले, "राजो, मेरे जाए बिना काम नहीं होगा। किसी का भला होता है तो इसके लिए थोड़ी तकलीफ ही सही। मेरा ओवरकोट उठा दो, उसमें मुझे ठंड भी नहीं लगेगी।"

रात्रि का एक बजा था, जब ऑटो की आवाज़ सुनाई दी। वह लौट आए थे। कपड़े बदलकर बिस्तर पर लेटे ही थे कि कहने लगे, "राजो, सीने में दर्द हो रहा है। मैंने पूछा, कैसा दर्द है ? सीना मल दूँ?" बोले, "नहीं, मलने से कुछ नहीं होगा।"

मैंने कहा, "डॉक्टर को बुलवाऊँ?" वह बोले, "हाँ।"

मैंने जल्दी-जल्दी अपने बड़े बेटे आलोक को उठाया और उससे डॉक्टर को बुला लाने को कहा। उसने जाते हुए पूछा, "पापा, दर्द कैसा है?" उन्होंने कहा, "डॉक्टर से कहना कि सीने में अनबेयरेबल पेन है।"

आलोक स्कूटर लेकर घर से निकला ही था कि उन्हें एक भारी उलटी हुई। मैं बहुत घबरा गई। मैंने अर्चना को उठाया। उन्हें किसी भी तरह चैन नहीं मिल रहा था। इतने में डॉक्टर आ गए। बड़ी बेचैनी के साथ उन्होंने डॉक्टर को अपना हाल बताया। कहने लगे, "डॉक्टर, बड़ा दर्द है।" मैंने डॉक्टर को बताया कि अभी इन्हें एक भारी उलटी हुई है। डॉक्टर ने बैठकर प्रिसक्रिप्शन लिखा। डॉक्टर ने प्रिसक्रिप्शन लिखते हुए कहा, "देखिए मिस्टर त्यागी, मैंने आपसे ज्यादा ड्रिंक्स के लिए मना किया था।" वह बोले, "बट, ई०सी०जी० एश्योर्ड मी।"

डॉक्टर बोले, "अभी मैं एक इंजेक्शन लिख देता हूँ। वह इन्हें लगवा दीजिए। ये सो जाएँगे तो आराम मिल जाएगा।" फिर डॉक्टर आलोक की तरफ मुखातिब होकर बोले, देखो, यह इंजेक्शन केमिस्ट की दुकान पर नहीं मिलेगा। अस्पताल चले जाओ, वहाँ होगा तो मिल जाएगा। कंपाउंडर को भी साथ में लेते आना।" उन्होंने इंजेक्शन का नाम और कंपाउंडर का नाम एक स्लिप पर लिखकर दिया और आलोक उन्हें छोड़ने चला गया।

वह उतनी ही बेचैनी से करवटें बदल रहे थे। मैं उनकी बाईं तरफ चारपाई पर बैठी थी। वह बोले, "राजो, सीने में बाईं ओर बहुत दर्द है। तुम अपना हाथ रख दो।"

कमरे में अँधेरा था। लाइट उन्होंने बंद करवा दी थी। बस, बरामदे की थोड़ी-बहुत रोशनी कमरे तक पहुँच रही थी। सिरहाने रखे हुए स्टूल पर अर्चना बैठी थी। वह बोले,"मेरे हाथों से आगे निकल रही है। हाथों की नसें बेहद खिंच रही हैं।" हम दोनों उनकी हथेलियाँ सहलाने लगे। थोड़ी देर बाद वह बोले, "बस बेटे, लगता है हम तो चल दिए।"

अर्चना रुआँसी हो बोली, "नहीं पापा, ऐसा नहीं कहते। आप जल्दी ठीक हो जाएँगे।" इतने में बाहर स्कूटर की आवाज़ सुनाई दी। आलोक के साथ कंपाउंडर भी था। कंपाउंडर को देखकर ढांढस बँधा कि चलो, अब इंजेक्शन लगने से इन्हें आराम मिल जाएगा।

कंपाउंडर ने इन्हें इंजेक्शन लगाया। आलोक फिर उसे छोड़ने चला गया। इंजेक्शन लगवाने के बाद उन्होंने हाथ नहीं मलवाए। मैंने पूछा, "दर्द कुछ कम हुआ ?" बोले, "नहीं, अभी तो वैसा ही है।"

फिर उन्होंने दाईं ओर करवट बदल ली। मैंने पूछा, "एक तकिया और दूँ?" वह बोले, "हाँ।" एक तकिया उन्होंने घुटने के नीचे रखा, एक सिरहाने दबा लिया। अब उनकी बेचैनी धीरे-धीरे कम हो चली थी। बेहोशी छाने लगी थी। अर्चना ने पूछा, "पापा, अब कैसा लग रहा है ?" वह बोले, "ठीक हूँ।"

"नींद आ रही है?" अर्चना ने पूछा।

"हूँ।"

थोड़ी देर बाद मैंने उनकी तबीयत जाननी चाही, लेकिन तब तक वह सो चुके थे। आलोक लौट आया था। मैंने उसे बताया कि वह सो गए हैं, तो वह बाहर बरामदे में लेट गया। अर्चना भी अपने पलंग पर चली गई। मैं अकेली बैठी अपने आपको समझाती रही।

उस वक्त कोई ढाई बजे होंगे जब उन्होंने बाई ओर करवट बदली। गले से खर-खर की आवाज़ आ रही थी। मैं बुरी तरह घबरा गई। मैंने दोनों बच्चों को उठाया और उनसे कहा, "जाओ, अपने चाचा जी को बुला लाओ और टैक्सी भी लेते आना।" अपूर्व को उठाया और उसे डॉक्टर को लाने भेजा। मैं बिलकुल असहाय उनके पास बैठी उनकी साँसों की आवाज़ सुनती रही। उनकी साँसों में बदलाव आता जा रहा था। फिर उन्हें दो-तीन हिचकी आई और उनके गले की आवाज़ भी बंद हो गई। सब कुछ समाप्त हो चुका था, लेकिन मेरा मन इतने बड़े सत्य को स्वीकारने के लिए बिलकुल तैयार नहीं था। मैंने फिर अपूर्व को ऑटो के लिए दौड़ाया। अप्पू अभी आधे रास्ते ही गया होगा कि अर्चना मुन्नू जी के साथ लौट आई। मुझे अभी भी आशा थी-मैंने अर्चना को एंबुलेंस के लिए फोन करने के लिए दौड़ाया और मुन्नू जी से कहा, "देखो, तुम्हारे भैया को क्या हो गया है!" मुन्नू जी ने उन्हें हिलाया-‘ भैया, भैया! कहकर आवाजें दीं, लेकिन वह नहीं बोले। इतने में आलोक हॉस्पिटल की जीप लेकर आ गया। मुन्नू जी और आलोक डॉक्टर को लेकर आए। डॉक्टर ने कुछ देखा-भाला और कहा कि सब कुछ ख़त्म हो चुका है। सब ख़त्म तो बहुत पहले ही हो चुका था, सिर्फ मेरा मन ही नहीं मान पाया था।

-राजेश्वरी त्यागी
[दुष्यन्त कुमार रचनावली : एक, संपादक - विजय बहादुर सिंह, किताबघर प्रकाशन, नयी दिल्ली]

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