अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

कोमल मैंदीरत्ता की दो कवितायें  (काव्य)

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Author: कोमल मैंदीरत्ता

मेरी अपनी किताबों की दुनिया

नहीं भूलता मुझे वो दिन
जब माँ लाई थी मेरे लिए
वो पहली किताब!
जिसमें थीं अनगिनत परियाँ
और उड़ने वाले पशु
साथ ही तैरने वाले पक्षी भी।
माँ कहती है-
जब मैं छोटी थी, तब भी
रंग-बिरंगे चित्रों वाली
कहानियों की किताबों के पन्ने
मैंने ख़ूब उलटे-पलटे हैं
उनके हर रंग से,
उनके हर रूप से,
मैं ख़ूब जुड़ी हूँ।
आज मेरी किताबों की
मेरी अपनी दुनिया है
जिसमें
मैं कभी बंदर और मगरमच्छ की दोस्ती करवाती हूँ
और कभी ‘ईदगाह' के
हामिद, नूरे और सम्मी के साथ
हर त्योहार मनाने लगती हूँ।
और, जब आज
मानवता की रक्षा के लिए
हर कोई अपने-अपने घर में
बंद रहने को मज़बूर है
मैं स्वयं को बिलकुल भी अकेला नहीं पाती हूँ।
जानते हैं, क्यों?
क्योंकि मैं अपनी किताबों के साथ
इस दुनिया का कोना-कोना जो घूम आती हूँ।
तो यह है मेरी अपनी किताबों की दुनिया
जो मुझे जीवन जीना सिखलाती है
और यह बतलाती है
कि वे ही हमारी सच्ची साथी हैं।

-- कोमल मैंदीरत्ता
kmendiratta73@gmail.com


सब्ज़ीवाला ‘छोटू'

ये जो महामारी आई है न !
इसका हम पर, तुम पर
बहुत असर पड़ा है।
आज किसी बड़े रिटेल-स्टोर की
लंबी बिलिंग-लाइन में खड़े होने की बजाय,
सब्ज़ी की सरकारी गाड़ी की लाइन में खड़ी होकर
पसीने से तरबतर हो,
उस ‘छोटू' सब्ज़ीवाले को डाँट रही थी-
"बच्चे! तू पढ़ता क्यों नहीं है,
क्या तेरी ऑनलाइन क्लासेज़ नहीं हैं?"
बड़े भोलेपन से वह बोला-
"वो क्या होता है दीदी!"
महामारी के कारण झेली जाने वाली
अपनी अनंत परेशानियों से घिरी मैं
अनायास ही सोचने लगी-
"क्या होगा!
जब यह ‘छोटू'
और न जाने इसके जैसे कितने ही ‘छोटू'
अगर साल-दो साल स्कूल न गए तो?"
इस महामारी का हम पर, तुम पर तो
क्या ही असर पड़ेगा!
लेकिन यह ‘छोटू'
अपने जैसे बहुतों के समान
आगे नहीं पढ़ेगा,
इन पर, इस महामारी का
हमारी सोच से परे ही असर पड़ेगा
यह ‘छोटू' तो जीवन-भर
सब्ज़ीवाला ‘छोटू' ही रह जाएगा।

-- कोमल मैंदीरत्ता
kmendiratta73@gmail.com

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