यदि पक्षपात की दृष्टि से न देखा जाये तो उर्दू भी हिंदी का ही एक रूप है। - शिवनंदन सहाय।

है मुश्किलों का दौर (काव्य)

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Author: शांती स्वरुप मिश्र

है मुश्किलों का दौर, तो क्या हँसना हँसाना छोड़ दूँ?
क्या तन्हाइयों में बैठ कर, मिलना मिलाना छोड़ दूँ?

वक़्त का भी क्या पता कब दिखा दे अपने कारनामे,
तो क्या मरने के खौफ से, मैं जीना जिलाना छोड़ दूँ

यारो हुजूम दिल की हसरतों का कम न होगा कभी,
तो क्या रुसवाइयों से डर के, सपना सजाना छोड़ दूँ?

माना कि आजकल मोहब्बतें भी हो चुकी हैं मतलबी,
तो क्या प्यार जैसी पहल को, करना कराना छोड़ दूँ?

न जाने मिलेंगी कितनी रुकावटें जीवन के सफर में,
तो क्या खलल से भयभीत हो, चलना चलाना छोड़ दूँ?

"मिश्र" ये आंधियां ये तूफ़ान तो आते रहेंगे उम्र भर,
तो क्या डर के उनके नाम से, बसना बसाना छोड़ दूँ

- शांती स्वरुप मिश्र
  ई-मेल: mishrass1952@gmail.com

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