देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।

कब तक लड़ोगे (काव्य)

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Author: बेबी मिश्रा

मत लड़ो सब जो चले गए उनसे डरो सब
क्या पता कल क्या हो
आज उन पर है कल तुम पर हो
आसान है कहना मुश्किल है सहना
संभलो कब तक लड़ोगे ।

इस हाल में भी राजनीति करोगे ?
गंध का सामान कुछ और बटोरोगे
कहाँ रखोगे छुआछूत का समय है
संक्रमित होने से नहीं बच पाओगे
सम्भालो कब तक लड़ोगे ।

दुनिया ख़त्म हो रही है
उसने भी राजनीति पल रही है
विचित्र है संसार...
मरते मरते भी मोह बढ रही है
रुको लालच कितना करोगे ?
सम्भालो कब तक लड़ोगे ।

विडम्बना बढ़ती जा रही है
मोह पर मोह भारी पड़ रही है
रास्ते पर खड़ा घर खोज रहा है
घर में बंद रास्ता खोज रहा है
रुको कितना सोचोगे ?
सम्भालो कब तक लड़ोगे ।

मंज़िले भागने से नहीं
सही दिशा में चलने से मिलती है
बातें कहने से नहीं करने से बनती है
शांति से सोचो तो ....
मुश्किलें आसान हो जाती है
रुको कितना ग़लत चलोगे
सम्भालो कब तक लड़ोगे

लड़ो अपने सवाल से
भिड़ो अपनी आवाज़ से
बढ़ो अपने कदम से
सोचो अपने दिमाग़ से
बोलो अपनी ज़ुबान से
तोलो अपनी ईमान से
देखो अपनी दृष्टिकोण से
रुको कितना दूसरों की सुनोगे
संभलो कब तक लड़ोगे ।

कहानी अपनी लिखो
दूसरों को पढ़ने दो
चित्र अपनी खींचो
रंग सबको भरने दो
उड़ान अपनी भरो
औरों को भी चलने दो
पहचान अपनी बनाओ
औरों को समझने दो
आकृति अपनी खींचो
रुको कब तक अक्स बनोगे
सम्भालो कब तक लड़ोगे ।

यह तुम्हारा भी शहर है
अपनी बात रख लो
सबकी सुनो कुछ अपनी भी कह लो
डरने का ख़ौफ़ ख़त्म करो
कुछ चाल अपनी भी चल लो
दूसरों से बहुत सीखा
कुछ अपनी भी दे दो
उम्र से चलते रहे पीछे
रुको अब तो आगे चलोगे
सम्भालो कब तक लड़ोगे ।

-बेबी मिश्रा
नई देहली, भारत।
ई-मेल: baby_mishra@rediffmail.com

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