अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।

कमरा (कथा-कहानी)

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Author: सुभाष नीरव

"पिताजी, क्यों न आपके रहने का इंतजाम ऊपर बरसाती में कर दिया जाए? " हरिबाबू ने वृद्ध पिता से कहा। "देखिए न, बच्चों की बोर्ड-परीक्षा सिर पर हैं। बड़े कमरे में शोर-शराबे के कारण वे पढ़ नहीं पाते। हमने सोचा, कुछ दिनों के लिए यह कमरा उन्हें दे दें।" बहू ने समझाने का प्रयत्न किया।

"मगर बेटा, मुझसे रोज ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना कहाँ हो पाएगा? " पिता ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा। "आपको चढ़ने-उतरने की क्या जरूरत है! ऊपर ही हम आपको खाना-पानी सब पहुँचा दिया करेंगे। और शौच-गुसलखाना भी ऊपर ही है। आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।"

"और सुबह-शाम घूमने के लिए चौड़ी खुली छत है।" बहू ने अपनी बात जोड़ी।

पिताजी मान गए। उसी दिन से उनका बोरिया-बिस्तर ऊपर बरसाती में लगा दिया गया।

अगले ही दिन, हरिबाबू ने पत्नी से कहा, "मेरे दफ़्तर में एक नया क्लर्क आया है। उसे एक कमरा चाहिए किराए पर। एक हजार तक देने को तैयार है। मालूम करना मुहल्ले में अगर कोई...."

"एक हजार रुपए!.... " पत्नी सोचने लगी, "क्यों न उसे हम अपना छोटा वाला कमरा दे दें?"

"वह जो पिताजी से खाली करवाया है?" हरिबाबू सोचते हुए-से बोले, "वह तो बच्चों की पढ़ाई के लिए...." "अजी, बच्चों का क्या है!" पत्नी बोली, "जैसे अब तक पढ़ते आ रहे हैं, वैसे अब भी पढ़ लेंगे। उन्हें अलग से कमरा देने की क्या जरूरत है?"

अगले दिन वह कमरा किराए पर चढ़ गया।

--सुभाष नीरव

[शोध-दिशा, सितम्बर 2014 से मार्च 2015]

टिप्पणी: यह लघुकथा लेखक की पहली लघुकथा थी और यह सारिका के लघुकथा विशेषांक (1984) में प्रकाशित हुई थी।

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