जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।

न जाने इस जुबां पे | ग़ज़ल (काव्य)

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Author: शांती स्वरूप मिश्र

न जाने इस ज़ुबां पे, वो दास्तान किसके हैं!
दिल में मचलते हुए, वो अरमान किसके हैं!

सोचता हूँ कि खाली है दिल का हर कोना
मगर यादों के आखिर, वो तूफ़ान किसके हैं !

मैं तो खुश हूँ कोई गम नहीं मुझको दोस्तों
पर दिल में बसे, वो ग़मे अनजान किसके हैं !

लगता है कि तन्हा ही गुज़र जाएगी ज़िंदगी
पर दिल में जो बैठे हैं, वो मेहमान किसके हैं !

मानता हूँ कि न चला कोई भी साथ दूर तक
पर सजा रखे हैं, वो साजो सामान किसके हैं !

दिखता तो ऐसा है कि बस बेख़बर हैं "मिश्र"
पर चेहरे पे उभरे, गम के निशान किसके हैं !

-शांती स्वरूप मिश्र-शांती स्वरूप मिश्र|
 ई-मेल: mishrass1952@gmail.com

 

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