जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 

विरह का गीत (काव्य)

Author: कवि चोंच

तुम्हारी याद में खुद को बिसारे बैठे हैं।
तुम्हारी मेज पर टंगरी पसारे बैठे हैं ।

गया था शाम को मिलने में पार्क में मिस से,
वहां पर देखा कि वालिद हमारे बैठे हैं ।।

जरा सा रूप का दर्शन तो दे दो आंखों को,
बहुत दिनों से यह भूखे बेचारे बैठे हैं।

ये काले बाल औ' इनमें गुंथे हुए मोती,
ये राजहंस क्या जमुना किनारे बैठे हैं?

गया जो रात बिता घर तो बोल उठे अब्बा,
इधर तो आओ हम जूते उतारे बैठे हैं!

- कवि चोंच

 

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