देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

प्रेमचंद की लघु -कथा रचनाएं (विविध)

Author: बलराम अग्रवाल

कई वर्ष पूर्व डॉ. कमल किशोर गोयनका ने एक बातचीत के दौरान मुझसे कहा था कि प्रेमचंद का अप्राप्य साहित्य खोजते हुए उन्हें उनकी 25-30 लघुकथाएं भी प्राप्त हुई हैं और वे शीघ्र ही उन्हें पुस्तकाकार प्रकाशित करेंगे । हम, लघुकथा से जुड़े, लोगों के लिए यह बड़ी उत्साहवर्धक सूचना थी । इस बहाने कथा की लघ्वाकारीय प्रस्तुति के बारे में प्रेमचंद की तकनीक को जानने समझने में अवश्य ही मदद मिलती । हालांकि प्रेमचंद को उपन्यास-सम्राट माना जाता है, परन्तु वे कहानी-सम्राट नहीं थे-यह नहीं कहा जा सकता ।

सच पूछा जाए तो वे बाह्य एवं अंत: जगत के एक सक्षम दृष्टा व प्रस्तोता हैं । मन की परतों को खोलने और उन्हें पाठक के सामने सहज रुप में प्रस्तुत कर देने की कला में वे प्रवीण हैं । दुर्भाग्य ही कहा जाना चाहिए कि डॉ. गोयनका से उनकी उक्त पुस्तक के बारे में उसके बाद कोई बात नहीं हो पाई । पता नहीं वह अब तक आ भी पाई है या नहीं । बहरहाल, प्रेमचन्द जयन्ती के अवसर पर यहां उनकी समस्त लघु कथा-रचनाएं प्रस्तुत हैं । आकार की दृष्टि से इनको हम दो भागों में विभक्त कर सकते हैं:

1. एक हजार तक शब्द-संख्या वाली रचनायें

2. एक हजार से अठारह सौ शब्द-संख्या वाली रचनायें ।

इनमें एक हजार से ऊपर शब्द-संख्या वाली रचनायें नि:सन्देह 'लघुकथा' नहीं है । वे लघ्वाकारीय 'कहानी' हैं । डॉ. कमल गुप्त इन्हें सम्भवत: लघुकहानी सही शब्द कहानिका (Storriette) कहना पसंद करें, परन्तु सिद्धांतत: लघुकहानी भी है कहानी ही। एक हजार से कम शब्दों वाली रचनाओं में सबसे छोटी रचना 'बाँसुरी' ( शब्द संख्या लगभग 100) है, जोकि वास्तव में उनकी एक उर्दू कहानी 'तिरिया-चरित्तर' का एक पैरा भर है। यह एक अलग बात है कि स्वयं प्रेमचन्द के काल में यह पैरा स्वतन्त्र रुप से 'बांसुरी' शीर्ष तले एक अन्य पत्रिका में भी छपा परन्तु यह निःसन्देह एक स्वतन्त्र रचना नहीं है। दूसरी कम शब्दों वाली रचना 'बीमार बहिन' है जो एक बाल-कथा जैसी लगती है, परन्तु परस्पर प्रेम की इसमें गहरी छाप है । लगभग 150 शब्दों की यह लघुकथा सहज बालबुद्धि की प्रभावशाली प्रस्तुति है । इसके बाद शब्द-संख्या (लगभग) के आधार पर उनकी लघु कथा-रचनाओं का क्रम यों बनता है -
राष्ट्र का सेवक ( 280), बंद दरवाजा (350), देवी (380 ), दरवाजा (650 ), बाबाजी का भोग (690), कश्मीरी सेब (720), दूसरी शादी (740), जादू (800) शादी की वजह ( 800 ), ग़मी, ( 820 ), गुरुमंत्र (890) तथा यह भी नशा, वह भी नशा (930)। यद्यपि यह अवश्य कहा जाता है कि लघुकथा में शब्द निर्धारण कोई शर्त नहीं है, परन्तु उसकी अधिकतम शब्द-सीमा है अवश्य । ऐसा नहीं होगा तो लघुकथा संकेत के, व्यंजना के अपने सौन्दर्य को भी खो देगी। कहानिका अथवा कहानी बन जाएगी। सपाट, घटना-कथा सूचना कथा बनकर रह जाएगी। प्रेमचन्द की 'दरवाजा' रचना; आप देखेंगे कि इसमें घटना नहीं है। घटना प्रधान होने के अपने बन्धन की कथा अब से लगभग 150 वर्ष पूर्व तोड़ चुकी है। वह अब 'Stream of Consciousness' भी है। हिन्दी में ऐसी अनेक लघुकथायें उपलब्ध हैं। कैलास जायसवाल की लघुकथा 'रुल बोलते हैं' इसका अप्रतिम उदाहरण है। आन्तरिक उद्वेग जितना धनीभूत होगा, कथ्य जितना स्पष्ट होगा और कथाकार जितना सक्षम होगा- अभिव्यक्ति उतनी सटीक व प्रभावशाली होगी। ऐसी स्थिति में लेखक स्पष्टत: रचना के आकारगत छोटी रह जाने अथवा लम्बी हो जाने की चिन्ता मन में नहीं पालेगा ।

'बाबा जी का भोग' एक यथार्थोन्मुख आदर्शवादी रचना है। रचना में तीन पात्र हैं- रामधन, उसकी स्त्री और साधु। तीनों की अपनी-अपनी मानसिकतायें हैं और वे अपनी पूर्णता में रचना में प्रकट होती है। रचना का अन्त यों होता है- घी आ गया। साधुजी ने ठाकुरजी की पिंडी निकाली, घंटी बजायी, और भोग लगाने बैठे। खूब तनकर खाया, फिर पेट पर हाथ फेरते हुए द्वार पर लेट गए। थाली, बटली और कलछुली रामधन घर मौजने के लिए उठा ले गया। उस रात रामधन के घर चूल्हा नहीं जला। खाली दाल पकाकर ही पी ली। रामधन लेटा, तो सोच रहा था- मुझसे तो यही अच्छे!

लेकिन साधु-समाज में प्रविष्टि पाने की राह कितनी दुरुह है। यह 'उन्होंने अपनी व्यंग्य एवं हास से परिपूर्ण रचना 'गुरुमन्त्र' में दर्शाया है । जिसमें घर के कलह और निमन्त्रणों के अभाव में पंडित चिंतामणि जी के चित्त में वैराग्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने सन्यास ले लिया है। परन्तु उनका हश्र यह होता है कि उनका यह कच्चापन उन्हे साधु-समाज से च्युत करने के लिए काफी था। दो-तीन साधु झल्लाकर आगे बड़े और बड़ी निर्दयता से उनका हाथ पकडकर उठा लिया। एक महात्मा- तेरे को धिक्कार है। दूसरे महात्मा- तेरे को लाज नहीं आती। साधु बना है। मूर्ख: पंडित जी लज्जित होकर समीप के एक हलवाई की दूकान के सामने जा बैठे।'

कश्मीर आज कितना अशान्त है-यह किसी से छिपा नहीं है। इस स्थिति में वह एकदम से नहीं पहुंच गया है-यह भी स्पष्ट है। कश्मीर में असामाजिक तत्वों की पैठ को प्रेमचंद की परादृष्टि ने कितने पहले और कितनी तीव्रता के साथ पहचान लिया था यह अक्तूबर 1936 में 'हंस' में प्रकाशित उनकी रचना 'कश्मीरी सेब' से हो जाता है ।

यह अत्यन्त खेद का विषय है कि प्रेमचन्द की इन लघुकथा-रचनाओं को अब तक विवेचन योग्य नहीं समझा गया। हम वस्तुत: पूर्व विवेचित पर ही विवेचना प्रस्तुत करने के आदी हो गये हैं, वह भी पूर्व दृष्टि का अनुगमन करते हुए। हमारी अपनी दृष्टि जैसे खो-सी गई है। अन्त में सिर्फ इतना कि उनकी प्रस्तुत लगभग सभी रचनायें विवेचिन होने का स्तर रखती हैं तथा इनकी विस्तृत व्याख्या होनी चाहिए ।

- बलराम अग्रवाल

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