अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

फैशन | हास्य कविता (काव्य)

Author: कवि चोंच

कोट, बूट, पतलून बिना सब शान हमारी जाती है,
हमने खाना सीखा बिस्कुट, रोटी नहीं सुहाती है ।
बिना घड़ी के जेब हमारी शोभा तनिक न पाती है,
नाक कटी है नकटाई से फिर भी लाज न आती है ।


छलकपटों ने आ करके अब भारत में है वास किया,
हाय! हमारे फैशन ने तो खूब हमारा नाश किया ।।

धोती को अब कहते हैं हम नहीं गुलामी सीखेंगे,
हैट पहन कर पगड़ी से हम नहीं सलामी सीखेंगे, ।
पाकेट से रूमाल लिया झट बूट साफ हम करते हैं,
मुंह की पालिश करके उसको पाकेट में फिर धरते हैं ।


अपने आप कलंकित हमने अपना ही इतिहास किया ।
हाय! हमारे फैशन ने तो खूब हमारा नाश
किया।।


चन्दन और कपूर छोड्कर पौडर मलना सीखा है,
सजे सजाये बन्दर बनकर टेढ़ा चलना सीखा है ।
धूप जलाना छोड़ सुबह हम सिगरिट खूब जलाते हैं,
नये नये हम मित्रो! फैशन-कितने नहीं चलाते हैं ।


हमने भारत भारत करके धन दौलत का ह्रास किया,

हाय! हमारे फैशन ने तो खूब हमारा नाश किया ।


स्नान, ध्यान, सब छोड़ा हमने मुंह को धोना सीखा है,
हँसते रहना पबलिक में पर घर में रोना सीखा है ।
चना चबाने पर भी जाहिर सदा सुपारी करते है,
देख गरीबी को भी अपने फैशन पर ही मरते हैं ।


मित्रो! सोचो अपने दिल में क्यों हमने यह त्रास दिया,

हाय! हमारे फैशन लू तो खूब हमारा नाश किया ।


ठंडा पानी छोड़ा हमने सोडा वाटर पीते हैं,
केवल ईश्वर की करुणा से फिर भी अब तक जीते हैं ।
नशा न कोई ऐसा होगा जिसको हमने छोड़ा है,
कोई रोग न ऐसा जिससे हमने मुंह को मोड़ा है ।


हाय ! कहो तो भारत तुमने क्या कुछ अब आभास किया,
हाय! हमारे फैशन ! तूने खूब हमारा नाश किया ।।


दूध, दही, घी छोड़ा हमने लिप्टन टी को पीते हैं,
मांस नहीं है तन में फिर भी मित्रो! अब तक जीते हैं ।
लेने कोई चीज जभी हम कम्पनियों में जाते है,
बाबू बनकर पैसे योंहीं खूब लुटा कर आते हैं ।


व्यसनों ने यों खोये तन में रोगों ने आ वास किया,
हाय! हमारे फैशन! तूने खूब हमारा नाश किया ।


यारो से भी मतलब की ही यारी अब हम करते हैं,
जो कुछ पाया पाकेट में सब चुपके चुपके धरते हैं ।
करें न यों तो कैसे फिर हम फैशन बाबू कहलावें,
खर्च बिना फिर अय्याशी में कैसे दिल को बहलावे ।

फैशन के हम दास बने  यों हमने बी. ए  पास किया,
हाय! हमारे फैशन ने तो खूब हमारा नाश किया ।


अपना घर यों खोया हमने हाथ नहीं कुछ आया है,
इस फैशन से सोचो मित्रो हमने क्या कुछ पाया है ।
कितने लाख रुपय्ये मित्रो! फैशन पर लगवाये हैं,
हमने मर कर देश मरे से कितने नहीं जगाये हैं ।


छोड़ो, मित्रों! इस फैशन को इसने हमको दास किया ।
हाय ! ''हंस'' इस फैशन ने तो खूब हमारा नाश किया ।।

 

-बद्रीप्रसाद पांडेय 'चोंच'
[चोंच महाकाव्य]

कवि चोंच 'हंस' उपनाम से भी प्रकाशित होते रहे हैं।

#

Back

 
Post Comment
 
 
 
 
 

सब्स्क्रिप्शन

इस अंक में

 

इस अंक की समग्र सामग्री पढ़ें

 

 

सम्पर्क करें

आपका नाम
ई-मेल
संदेश