एक भाव आह्लाद हो ! (काव्य)

Author: डॉ० इंद्रराज बैद 'अधीर'

थकी-हारी, मनमारी, सरकारी राज भाषा है,
बड़ी दीन, पराधीन बिचारी स्वराज भाषा है ।
किसी के इंगितों पर डोलती यह ताज भाषा है,
जिस तरह चाहो, करो, हिन्दी तुम्हारी राजभाषा है ।

अभ्यास है इसके अधर को सीने अश्रु पीने का,
अन्यायों को सहने, घुट-घुटके मरने-जीने का ।
असहाय है ऐसी कि इसकी संतान ही नामर्द है,
कोई नहीं पहिचानता कि दिल में कैसा दर्द है ।

जो भी आया कर गया है साथ इसके दिल्लगी,
अवश जोड़े हाथ सबकी करती रही है बंदगी ।
यह भी कैसी माँ कि इसके बेटे इसे भूलते,
सुनीति को तज सुरुचि की ही गोद में वे झूलते ।

इस पाप का, संताप का हे दैव, अब तो अंत हो;
निष्प्राण इसकी संतति फिर एक बार जीवंत हो ।
जागें, बढ़े आगे कि झुकता सामने जहाँ मिले;
सोये हुए सिंह-सुतों से पुन: उनकी माँ मिले ।

हों भारती की अर्चना में भारतीय बोलियाँ,
भरती जाए ज्ञान से विज्ञान से ये झोलियाँ ।
हो एक देश, एक प्राण, एक भाव आह्लाद हो,
निखिल विश्व में गूंजता जनभारती का नाद हो !

- डॉ० इंद्रराज बैद 'अधीर'

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