जब से हमने अपनी भाषा का समादर करना छोड़ा तभी से हमारा अपमान और अवनति होने लगी। - (राजा) राधिकारमण प्रसाद सिंह।
 

काव्य मंच पर होली (काव्य)

Author: बृजेन्द्र उत्कर्ष

काव्य मंच पर चढ़ी जो होली, कवि सारे हुरियाय गये,
एक मात्र जो कवयित्री थी, उसे देख बौराय गये,

एक कवि जो टुन्न था थोडा, ज्यादा ही बौराया था,
जाने कहाँ से मुंह अपना, काला करवा के आया था,
रस श्रृंगार का कवि गोरी की, काली जुल्फों में झूल गया,
देख कवयित्री के गाल गोरे, वह अपनी कविता भूल गया,
हास्य रस का कवि, गोरी को खूब हसानो चाह रहो,
हँसी तो फसी के चक्कर में, उसे फसानो चाह रहो,
व्यंग्य रस के कवि की नजरे, शरू से ही कुछ तिरछी थी,
गोरी के कारे - कजरारे, नैनो में ही उलझी थी,

करुण रस के कवि ने भी, घडियाली अश्रु बहाए,
टूटे दिल के टुकड़े, गोरी को खूब दिखाए,

वीर रस का कवि भी उस दिन, ज्यादा ही गरमाया था,
गोरी के सम्मुख वह भी, गला फाड़ चिल्लाया था,

रौद्र रूप को देख के उसके, सब श्रोता घबडाय गये,
छोड़ बीच में में सम्मलेन, आधे तो घर भाग गये,
बहुत देर के बाद में, कवयित्री की बारी आई,

गणाम करते हुए, उसने कहा मेरे गिय कवि ' भाई',
सुन ' भाई' का संबोधन, कवियों की ठंडी हुई ठंडाई,
संयोजक के मन - सागर में भी, सुनामी सी आई,

कटता पता देख के अपना, संयोजक भी गुस्साय गया,
सारे लिफाफे लेकर वो तो, अपने घर को धाय गया ।।

- बृजेन्द्र उत्कर्ष
  ई-मेल: kaviutkarsh@gmail.com

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