कुछ यूँ हुआ उस रात... (कथा-कहानी)

Author: प्रगति गुप्ता

उस रात तिलोत्तमा के मोबाइल की बजती घंटी ने गहराते हुए सन्नाटे के साथ-साथ उसके मन की शांति को भी भंग कर दिया। कुछ देर पहले ही उसकी आँख लगी थी। पल भर तो उसे समझ ही नहीं आया कि मोबाईल की घंटी सच में बज रही है या वह कोई सपना देख रही है। उसने उनींदी आँखों से देखा... रात का एक बज चुका था।

तिलोत्तमा ने अनमने ढंग से बेड-साइड पर रखे हुए अपने मोबाईल को उठाकर हेलो कहने का प्रयास किया ही था कि उसे एक लड़की की आवाज़ सुनाई दी। फ़ोन करने वाली लड़की शायद कुछ जल्दी में थी। तभी उसने बिना प्रतीक्षा किये बोलना शुरू कर दिया।

“मम्मा... मम्मा! आप प्लीज मुझ से बात कीजिये।....कुछ हो गया है मुझे। मेरे पेट का निचला हिस्सा फोड़े की तरह दु:ख रहा है।... अभी कुछ सफ़ेद-सफ़ेद गाढ़ा-सा भी निकला है। आप सुन रही हो न मम्मा... आपकी बेटी को बहुत घबराहट हो रही है।... नींद भी नहीं आ रही। मेरे पेट में होने वाला तेज़ दर्द धीरे-धीरे सब जगह फैलता जा रहा है।... मैं ठीक से साँस भी नहीं ले पा रही हूँ। कुछ घुटन-सी महसूस हो रही है।”

तिलोत्तमा को उसकी गहराती हुई आवाज़ सुनकर खुद के भीतर एक अजीब-सा हौल महसूस हुआ। उसे लगा कहीं उसके अपने ही पेट में तो दर्द नहीं हो रहा। उसके दाएं हाथ में मोबाईल था। अनजाने में ही बायां हाथ भी रजाई से शरीर को कवर करने के चक्कर में खुद-ब-खुद बाहर आ गया था। भरी सर्दी में उसके दोनों हाथ काफ़ी ठंडे हो गए। जैसे ही उसके बाएं हाथ ने पेट पर स्पर्श किया, एक झुरझुरी-सी ने भीतर दौड़कर उसे चौकन्ना कर दिया।

तिलोत्तमा को बोलने वाली लड़की की उम्र पंद्रह-सोलह साल की बच्ची जैसी लग रही थी। लड़की का लड़खड़ाते हुए बोलना उसकी भी साँसों की रफ़्तार को घटा-बढ़ाकर असंयत करने लगा। उसका बी.पी. भी कुछ समय से बढ़ा हुआ चल रहा था। फ़ोन की आवाज़ के साथ तिलोत्तमा का झटके से उठना, उसकी धड़कनें और बढ़ा गया। असमंजस की स्थिति में उसने खुद से प्रश्न किया...

इस वक़्त किसका फ़ोन हो सकता है?... कौन उसे मम्मा पुकारकर अपनी बातें बता रहा है? कहीं उसकी बेटी भव्या ने कोई भयावह सपना तो नहीं देख लिया और वो घबरा गई हो?’... बेटी का ख्याल आते ही तिलोत्तमा को अपनी सांस हलक में अटकी हुई महसूस हुई। उसने तेज़ी से उठकर बेटी के कमरे में पहुंचना चाहा। इससे पहले कि वह ऐसा कुछ कर पाती, फ़ोन पर एक बार फिर आवाज़ सुनाई देने लगी…

“मम्मा...! आप मुझे सुन रही है न? मैं कहीं मरने वाली तो नहीं हूँ? मैं मरने से पहले आपसे ढेर-सी बातें करना चाहती हूँ... क्योंकि मरने के बाद... सिर्फ़ बातें ही तो रह जाती हैं। मुझे भी तो आपसे कितनी सारी बातें करनी थीं...।” कुछ देर की चुप्पी के बाद अचानक आवाज़ आई... “प्लीज! आप फ़ोन मत रख देना।” फिर कुछ समय के लिये ख़ामोशी छा गयी।

बच्ची के साथ चल रही बातों का सिलसिला तिलोत्तमा के दिमाग में बार-बार अपनी बेटी का ही ख्याल ला रहा था। क्यों भव्या उसके पास नहीं आ रही?... क्यों वह फ़ोन करके बातें कर रही है?... जबकि दोनों एक ही घर में हैं।

तिलोत्तमा ने न जाने कितनी बार अपने विचारों को झटककर पुनः सोचने के लिए संयत किया और घड़ी की ओर फिर से देखा। लड़की की बातें सुनते हुए पाँच-सात मिनट गुज़र चुके थे।

तिलोत्तमा अब अपने विचारों को समय से जोड़कर सुलझाने की कोशिशें करने लगी थी। साढ़े ग्यारह बजे ही उसकी बेटी अपने कमरे में सोने गई थी। डिनर के बाद काफी देर तक माँ-बेटी हंसी-ठट्ठा करती रही थी। भव्या के पास स्कूल-कॉलेज की न जाने कितनी बातें सुनाने के लिए होती थीं। अगर भव्या को कोई परेशानी होती तो वह साझा जरूर करती। उनके घर में कोई बंदिश नहीं थी।... फिर यह क्या हो रहा है?.. आने वाले फ़ोन पर बच्ची का सम्बोधन मम्मा होने से तिलोत्तमा असमंजस की स्थिति में आ गई थी।

तिलोत्तमा ने फ़ोन हाथ में लिये-लिये ही अपने पैर रज़ाई से बाहर निकाल लिए ताकि चप्पल पहनकर बात करते हुए बेटी के कमरे तक पहुँच सके। उसके अंदर गहराता हुआ डर फ़ोन काटने नहीं दे रहा था। वह बेटी को सही-सलामत देखकर निश्चिंत हो जाना चाहती थी। इंतज़ार का एक-एक पल बहुत भारी पड़ रहा था। साथ ही वह फ़ोन पर भी बात करते रहना चाहती थी ताकि संवाद न टूटे। तिलोत्तमा ने दोनों के बीच छाई हुई खामोशी को तोड़ते हुए पूछा...

“भव्या! क्या हुआ है तुमको?... तुम ठीक तो हो बेटा!... क्यों इतनी घबराई हुई हो? मैं बस आ ही रही हूं तुम्हारे पास... बिल्कुल परेशान मत होना।”

उसने शायद तिलोत्तमा की कही हुई बातों पर ज़्यादा ध्यान नहीं दिया। वह अपनी बात कहे जा रही थी...

“मम्मा! आप सिर्फ़ बातें करती रहो।... अगर आप मेरे पास आओगी तो मैं भाग जाऊंगी।... फिर कभी लौटकर वापस नहीं आऊँगी।”

अनायास ही बेटी के भागने वाली बात सुनकर तिलोत्तमा को भरी सर्दी में भी पसीना आ गया। उसका दिल धौंकनी की तरह जोर-जोर से धड़कने लगा। उसने फिर से अपने पैर रजाई में वापस खींच लिए और अपने माथे के पसीने को पोंछते हुए कहा...

“कहां भागकर जाओगी बेटा?... कहीं नहीं जाना है।... अपना घर छोड़कर कोई जाता है क्या?... मैं एक मिनट में आती हूं।”

तिलोत्तमा ने अब पुनः रजाई से पैर निकालकर चप्पल पहनने का सोचा। बगैर विलंब किए वह अपनी बेटी के कमरे में पहुंचना चाहती थी। तभी फ़ोन पर आवाज़ आई...

“आप प्लीज... मेरे पास मत आना।... मैं नंगू हूं।... मैंने नीचे कुछ भी नहीं पहना हुआ है। मेरे कपड़े गंदे हो गए थे। मैंने अपने कपड़े उतारकर डस्ट्बिन में डाल दिए हैं।... मैं नहीं चाहती हूँ कि आप मुझे ऐसे देखो। आप परेशान हो जाओगी।... मुझे बहुत डर लग रहा है।... मेरे साथ यह क्या हो रहा है मम्मा?”

बच्ची की आवाज़ में घुला हुआ भय तिलोत्तमा को भी भयभीत करने लगा था। तिलोत्तमा के हाथ-पाँव भय से ठंडे होने लगे थे।

“तुम नंगू हो... कोई बात नहीं बेटा।… कोई भी निर्णय लेने से पहले... एक बार आकर, मुझ से बातें करो।”

तिलोत्तमा अब लगभग गिड़गिड़ा ही पड़ी थी। बेटी की सलामती की चिंता ने उसे गिड़गिड़ाने पर मज़बूर कर दिया था। तिलोत्तमा को डर खाए जा रहा था बेटी कहीं कोई गलत निर्णय न ले ले। जैसे ही तिलोत्तमा ने वापस हैलो कहा, फ़ोन कट चुका था। अब तिलोत्तमा के दिलो-दिमाग पर बुरे-बुरे ख्याल कब्जा करने लगे। तभी तिलोत्तमा के मन में विचार उठा... कहीं भव्या ने कोई नशा तो नहीं कर लिया? उसके बात करने के अंदाज़ से लग रहा था कि वह नशे में है।

कुछ पलों बाद मोबाइल की घंटी दोबारा बजने से तिलोत्तमा के विचारों की श्रंखला टूटी|... फ़ोन उठाते ही बच्ची की आवाज़ आई...

“आपने फ़ोन क्यों काट दिया था?…. आप मुझे छोड़कर क्यों चली गई? आपने क्यों नहीं सोचा... आपकी बेटी आपके बिना कैसे रहेगी?.. मुझे अपने कमरे में बहुत डर लगता है मम्मा। कहीं मैं भी आप की तरह खुद को खत्म न कर लूँ।”

“पर बेटा! मैं तो ज़िंदा हूं... तुम मुझ से ही तो बात कर रही हो।... कुछ नहीं होगा तुम्हें।”...

तिलोत्तमा को बच्ची की बातों ने फिलहाल पूरी तरह पगला दिया था। इसी उधेड़-बुन में तिलोत्तमा अपने पास रखी बोतल का पूरा पानी गटक चुकी थी।... अब उसकी नींद पूरी तरह उड़ गई थी।... वह अपने बिस्तर पर ही तकिये की टेक लगाकर बैठ गई। न तो बच्ची फ़ोन रख रही थी....न ही तिलोत्तमा को फ़ोन रखने दे रही थी। न ही वह बेटी के कमरे तक पहुँच पा रही थी।

खौफ़ में होने से फ़ोन पर आने वाली आवाज़ उसे बिल्कुल भव्या की आवाज़-सी ही लग रही थी। उसके दिलो-दिमाग में अजब-सी जंग छिड़ी हुई थी। दिल फ़ोन वाली बच्ची को बेटी समझ रहा था और दिमाग इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था। फिर तिलोत्तमा ने मन ही मन तय कर लिया कि यह उसकी अपनी बेटी नहीं हो सकती। उसने बच्ची से पूछा...

“तुम क्यों इतनी परेशान हो? तुमने कोई नशा किया है क्या?... तुम्हारे मां-पापा कहां हैं?... किस क्लास में पढ़ती हो?”

बच्ची ने तिलोत्तमा की किसी भी बात का पूरा जवाब नहीं दिया।

“मेरे मम्मा और पापा?... आपको नहीं पता कि... आपकी बेटी नवीं में आ गई है। जब आप मुझे कोचिंग के लिए कोटा छोड़ने आई थी, मुझे अच्छा नहीं लग रहा था। मैं आपके बगैर नहीं रहना चाहती थी मम्मा। पर आपकी ज़िद थी.....मैं अपना कैरियर बनाऊँ। जल्दी ही सेटल हो जाऊँ।... यहाँ आने के बाद मेरा एक दोस्त बन गया।… वह कोटा में पिछले तीन सालों से पढ़ रहा है। उसने मेरी बहुत मदद की। मैंने उसको आप दोनों के झगड़ों के बारे में भी बता दिया। जब आप दोनों आपसी झगड़ों में मेरे से भी बात करना छोड़ देते थे ... मेरा मन बहुत दु:खता था। मैं रात-रात भर सो नहीं पाती थी।”

कुछ देर के लिये वह रुकी, और दोबारा अपनी बात कहने लगी।

“एक दूसरे पर लगाया हुआ आपका हर थप्पड़, मेरे गाल पर लगता था। सारी-सारी रात में अपने बदन पर आप दोनों की हाथापाई को महसूस करती थी। सॉरी मम्मा... मुझे किसी अनजान को अपने घर की बातें नहीं बतानी चाहिए थी।... आप ही बताइए मैं अपनी बातें उसे न बताती तो किसे बताती? पर यह सब आपको कैसे पता होगा?... तीन महीने पहले आपने तो... कोई अपनी बेटी को अकेला छोड़कर जाता है क्या?”

एक लंबी चुप्पी के बाद उसने अपनी बात पूरी की...

“मम्मा! आपको पता है... मेरे दोस्त ने मेरे साथ जबरदस्ती... शायद उसी वज़ह से...” अपनी बात फिर से अधूरी छोड़कर वह चुप हो गई।

बच्ची की आवाज़ की लड़खड़ाहट तिलोत्तमा को भीतर ही भीतर बेचैन कर रही थी। उसकी बातों के सिरे उलटे-सीधे थे। बच्ची का अटक-अटक कर टुकड़ों में अपनी बातें बताना या दोहराव करना, उसके नशे में होने को पुख्ता कर रहा था।

कैशोर्य अवस्था में होने वाले परिवर्तनों ने उसे परेशान कर दिया था। घर के माहौल से चोटिल बच्ची ने भटककर कुछ ज्यादा ही नशा कर लिया था। तभी वह अपनी समस्याएँ घर के लोगों की बजाय अनजान लोगों से साझा कर रही थी। तिलोत्तमा के लिए बच्ची अभी भी एक रहस्य थी। तिलोत्तमा ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा...

“अपनी बातें खुलकर कहो बेटा।... मम्मा कहा है न मुझे।” अब शायद उसने तिलोत्तमा की बात सुनी थी। तभी वह बोली....

“पर आप कैसे सुन पाओगी मेरी बात?... तीन महीने पहले आपने...। आपने पापा की रिवाल्वर से खुद को गोली क्यों मार ली थी?... आपने अपनी बेटी का नहीं सोचा? पापा आपको प्यार नहीं करते थे।... पर मैं तो करती थी।... आपके जाते ही पापा ने दूसरी...। हम दोनों ही पापा के जीवन में कांटा थे मम्मा।... तभी तो दूसरी शादी करने के बाद वह मुझसे कभी मिलने ही नहीं आए।”

अचानक फ़ोन फिर से कट गया। नशे के हालात में बच्ची से शायद फ़ोन बार-बार ग़लती से कट रहा था। कुछ पल बाद ही वापस फ़ोन की घंटी बजते ही तिलोत्तमा ने जैसे ही फ़ोन उठाया तो बच्ची की आवाज़ आई...

“मम्मा।… प्लीज़ आप मुझे सुला दो न। पिछले पाँच दिनों से मैं सोई नहीं हूँ। वह मेरा दोस्त है न... उसने मुझे कुछ गोलियां दी थी ताकि मैं सो सकूँ। आज जब एक गोली खाने के बाद भी मुझे नींद नहीं आई तो मैंने एक साथ दो गोली और खा ली। मुझे बहुत घबराहट हो रही है।... अगर मैं गोली नहीं खाती तो आपकी ही तरह कुछ कर लेती।...”

फिर एक लंबी साँस लेकर वह आगे बोली...

“मम्मा। मेरे मना करने के बावजूद मेरा दोस्त मुझे कोई पाउडर खिलाता रहता था, कभी कुछ गोलियां... आप ही बताइये भला किसको बताती यह सब बातें।... मुझे लगता है जैसे ही मेरी आंखें बंद होगी... मैं फिर कभी नहीं उठूंगी। इसलिए मैं पूरी-पूरी रात आँखें खोल कर पड़ी रहती हूँ।”

इतनी छोटी बच्ची के नशा करने की बात स्वीकारते ही तिलोत्तमा की आँखें नम हो गई।

“बेटा! तुम्हें कोई बड़ी बीमारी नहीं है। सब ठीक हो जाएगा। थोड़ी देर सो जाओ।”

“मैं सो जाऊँगी मम्मा।... प्लीज आप मेरे साथ रहना... आप रहोगी न मेरे साथ?”

“हाँ बेटा! मैं रहूँगी तुम्हारे साथ।... तुमने खाना तो खा लिया था न।”

“मुझे अपने हॉस्टल का खाना अच्छा नहीं लगता मम्मा। मुझे आपके हाथ का बनाया हुआ खाना बहुत अच्छा लगता था।... आप बहुत याद आती हो मम्मा। आपको पता है... पिछले तीन दिनों से मैं कॉलेज भी नहीं गई।”

“तुम कॉलेज क्यों नहीं गयी बेटा?... सुनो अब पाउडर या गोलियां मत खाना।… मैं तुम्हारे साथ हूँ न।”… सिर्फ़ ‘हम्म’ बोलकर बच्ची चुप हो गई।

लगभग चालीस मिनट की बातचीत के बाद तिलोत्तमा को काफ़ी कुछ समझ आ गया था। बच्ची भी अपनी बातें बताकर शायद हल्की हो गई। जब बहुत देर तक कोई आवाज़ या फ़ोन नहीं आया तो तिलोत्तमा को लगा बच्ची सो गई है।

इसी बीच तिलोत्तमा के लगातार बोलने की आवाज़ें, जब सोई हुई भव्या तक पहुंची, वह अपने कमरे से निकलकर तिलोत्तमा के सामने पहुँच गई।.....

“मम्मा!... मम्मा क्या हुआ है? इतनी रात को आप हाथ में फ़ोन लिए क्यों बैठी हैं?... क्या किसी का फ़ोन आया था?

तिलोत्तमा अभी भी बच्ची की बातों में खोई हुई थी।... जैसे ही उसने भव्या को देखा, उसके शब्द मुँह में ही गुम हो गए हो। भव्या को सही सलामत देखकर उसने बिस्तर से उठकर भव्या को कसकर गले लगा लिया और रूआंसी हो आई।

भव्या ने तिलोत्तमा से पूछा...

“आपके चेहरे पर हवाइयाँ क्यों उड़ रही हैं मम्मा? आपकी तबीयत ठीक तो है?”

अनायास ही भव्या भी माँ के लिए चिंतित हो उठी थी। तिलोत्तमा ने जैसे ही फ़ोन को वापस कान पर लगाकर हेलो किया.. फ़ोन कट चुका था। उसने फोन पर हुई बातें भव्या को बताई|

“गलत नंबर लग गया होगा मम्मा| अब आप भी सो जाइए। पापा भी बाहर गए हुए हैं। अगर आप कहे तो मैं आपके पास ही सो जाती हूँ।... आपकी नींद पूरी नहीं हुई तो बी.पी. बढ़ जाएगा।” भव्या ने प्यार से तिलोत्तमा को कहा|

“मैं ठीक हूँ बेटा। तुम चिंता मत करो।... अपने कमरें में सोने जाओ।... तुम्हें कल कॉलेज भी जाना है।”

तिलोत्तमा के कहने से भव्या सोने चली गई। मगर तिलोत्तमा के दिलो-दिमाग से बच्ची की आवाज़ हट नहीं रही थी। न जाने क्यों उसे बार-बार लग रहा था, बच्ची का फ़ोन एक बार फिर आएगा। बच्ची का मम्मा कह कर बातें करना, सारी रात उसकी नींद में विघ्न डालता रहा।

जैसे-तैसे पूरी रात और फिर दिन भी निकल गया। सारा दिन उस बच्ची की आवाज़ें तिलोत्तमा के दिमाग़ में गूंजती रहीं।... नशे की ओवर-डोज़ होने से बच्ची ने गफ़लत में अपनी माँ के नंबर को डायल किया होगा और फ़ोन तिलोत्तमा के नंबर पर लग गया होगा। दिन भर तिलोत्तमा बच्ची की बातों के सिरों को बांधने की कोशिशों में लगी रही।

अगली शाम तक तिलोत्तमा के पास बच्ची का फ़ोन दोबारा नहीं आया। वह उसके बारे में सोच-सोच कर बैचेन हो उठी। और थक-हार कर उसने फ़ोन लगा लिया।

बच्ची ने फ़ोन उठाते ही खीजते हुए कहा....

“कौन बोल रही है आप?... मेरी नींद खराब कर दी आपने।”

“कल रात तुमसे कई बार बात हुई थी बेटा।... तुम बहुत परेशान थी। मैं सवेरे से तुम्हारे लिए चिंतित थी। जब तुम्हारा कोई कॉल नहीं आया तो खुद को लगाने से नहीं रोक पाई।” तिलोत्तमा ने उसकी खीज़ को नजरंदाज करते हुए अपनी बात रखी।

शायद बच्ची कुछ असमंजस की स्थिति में थी। वह काफ़ी देर तक चुप रहने के बाद बोली...

“सॉरी आंटी। आपको मेरी वज़ह से जागना पड़ा।... अभी मैंने अपनी कॉल लिस्ट देखी।... मैं ठीक हूँ। आपको आइंदा परेशान नहीं करूंगी।”

“सॉरी कहने की कोई ज़रूरत नहीं है बेटा।... मैं तुमसे मिलना चाहूंगी।”

“पता नहीं कल रात क्या हो गया था?... शायद कुछ ज़्यादा ही... आई एम सॉरी!” फिर से उस लड़की ने अपनी बात अधूरी छोड़, थोड़ी देर की चुप्पी के बाद फ़ोन डिस्कनेक्ट कर दिया।

न जाने कितनी देर तक तिलोत्तमा फ़ोन अपने कान से चिपकाए रही। उसे फ़ोन कटने के बाद दोबारा आने का इंतज़ार था। मगर ऐसा हुआ नहीं। तिलोत्तमा ने कई दिनों तक उस नंबर पर फ़ोन लगाया, मगर हमेशा एक ही मैसेज आता रहा... ‘दिस नंबर डज़ नॉट एगज़िस्ट।’

तिलोत्तमा सोच में पड़ गई थी... ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस से रात भर बातें होती रहीं... उसका कोई वजूद ही नहीं। कम से कम वह लड़की तो केवल एक टेलिफ़ोन नंबर भर नहीं हो सकती।... वह लड़की चाहे अपना फ़ोन हमेशा के लिये बन्द कर दे, मगर तिलोत्तमा के दिल में उसका वजूद हमेशा बना रहेगा।

- प्रगति गुप्ता

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