देशभाषा की उन्नति से ही देशोन्नति होती है। - सुधाकर द्विवेदी।
 

उजड़े प्यार का मसीहा (कथा-कहानी)

Author: विजय कुमार तिवारी

कहानी का अंत मेरे सामने है। ऐसा ही होगा,क्या कभी मैंने सोचा था? क्या कभी मैंने कोई कल्पना की थी कि प्यार मुझे इस तरह ऐसे मोड़ पर खड़ा कर देगा और मैं थका-हारा अपना सब कुछ लुटा चुका रहूँगा। पर,आज सत्य यही है,अंत यही है। हाँ,अभी जो कुछ हुआ है,यही होना था। एक न एक दिन यह होना ही था।

"अब मुझे सब कुछ भुला देना चाहिये। बिल्कुल भूल जाना चाहिये," यही सोचता हुआ मैं उस मकान से बाहर निकला। लोग अपने-अपने घरों की बत्तियाँ जला रहे थे। कुछ घरों में अभी भी अंधेरा पसरा हुआ था मानो कोई है ही नहीं। गली में आने-जाने वालों की कमी नहीं थी। सबके हाथों में थैले थे और थैलों में घर के लिये आवश्यक सामान। कुछ लोग साइकिल टुनटुनाते हुए चल रहे थे और उनके थैले साइकिल की हैंडिल पर लटके थे।

उन सबसे बचता-बचाता मैं सड़क तक आया। दोनों तरफ दूर-दूर तक फैली दुकानों में प्रकाश के लिये सारे बल्ब जल चुके थे। चारों ओर उजाला ही उजाला था और लोगों की भीड़ भी। मुझे सिगरेट की तलब महसूस हुई। सामने पान की दुकान से मैंने सिगरेट लिया। अनिश्चितता की स्थिति में कश लेने लगा। कुछ चैन मिला और राहत भी। एक बार पुनः उस गली की ओर देखा और विह्वल हो उठा।

ओह,इन चार वर्षों में सब कुछ बदल गया है। आज से लगभग चार वर्ष पहले की घटना मूर्त हो उठी। वह यानी मैं, एक यायावर सा इस शहर में आया था और शहर के इतिहास-भूगोल को समझना चाहता था। मैंने अपने शोध-पत्र के लिये इसी शहर को चुना और बिना सोच-विचार किये,बिना तैयारी किये चला आया । मुझे ऐसे मकान की या कमरे की जरूरत थी जहाँ कम किराये पर अपने ढंग से कुछ दिन व्यतीत कर सकूँ। होटल का खर्च उठाना मेरे जेब के बस की बात नहीं थी। मैंने इसके लिये रिक्शे वाले से बात शुरु की ही थी कि वह दलाल बीच में आ धमका।

बोला,"हाँ,साहब! एक मकान है,बहुत नजदीक ही है। पैदल जाया जा सकता है। मकान एक बूढ़े व्यक्ति का है। उम्र कोई अधिक नहीं है परन्तु परिस्थितियों का मारा हुआ है। बेसमय चेहरे पर झुर्रियाँ उभर आयीं हैं। खांसी से परेशान रहता है। लड़का और लड़की सहित बस तीन जनों का परिवार है। बच्चों की मां नहीं है। बूढ़ा ही सबको पाल रहा है। लड़का बड़ा है और लड़की लगभग सोलह-सतरह वर्ष की होगी।"

"तो चलो,"मैंने कहा।

उसकी बातें सतत जारी थीं। न जाने क्या-क्या बोलता रहा। कभी कुछ पल्ले पड़ता,कभी नहीं। उसने बहुत शातिराना तरीके से बड़ा सा चित्र खींचा था जिसमें उलझना किसी के लिये भी असम्भव नहीं था। मेरी तो जरूरत थी। मुझे प्रभावित करने की उतनी आवश्यकता नहीं थी। हाँ,शायद वह अपना धर्म निभा रहा था। उबने के बावजूद मुझे उतना बुरा नहीं लग रहा था और मैं उसकी हाँ में हाँ मिला रहा था। 

हम दोनों पैदल ही चल रहे थे। पूरा रास्ता उसने बहुत सावधानी से पार किया मानो मुझे सहारा,सहयोग और सफलता पूर्वक मार्ग-दर्शन कर रहा हो। मुझे यह अच्छा लगा।

उसका भाषण जारी था। उसकी बातों में यह शहर था,यहाँ की आबोहवा और बहुत सी गोपनीय तस्वीरें। शायद यथार्थतः बता देना चाहता था कि यहाँ अनेक तरह की परेशानियाँ हैं,चोर-उचक्के परेशान करते हैं,साफ-सफाई नहीं है,समय से नल का पानी नहीं आता और बिजली के साथ तो खूब आँखमिचौली का खेल चलता रहता है। मैंने मन ही मन तय कर लिया कि अपने शोध के लिये उससे पुनः मिलूँगा और बहुत सी बातें पूछूँगा। उसने यह भी बताया कि यहाँ आये हुए यात्रियों के लूटे जाने की पूरी सम्भावना रहती है। उसने यह भी जताने की कोशिश की कि अच्छा हुआ मैं,उसे मिल गया। उसने यह भी बताया कि रात होते ही कौन-कौन सी सड़कें असुरक्षित और खूंखार हो जाती हैं या फिर कौन-कौन सी जगहे मौज-मस्ती के लिये उपयुक्त हैं। इस तरह सारे पहनावे को उतारकर उसने शहर के नंगे जिस्म को दिखाना चाहा।

मैं समझ नहीं पाया कि उसका आशय क्या है या उसकी बातों में सच्चाई कितनी है। बस,चुपचाप सुनता रहा और कभी शांत कभी अशान्त होता रहा। उसकी पैनी निगाह मुझपर पड़ती तो मैं सिहर उठता था और वह मुस्करा देता।

गली के अंत में हम उस मकान के सामने पहुँच गये। वह रुका और मेरे बैग को अपने कंधे से नीचे उतारा। उसने लम्बी सांस खींची और दरवाजे पर दस्तक दिया। थोड़ी देर प्रतीक्षा करनी पड़ी। भीतर से पदचापों की आवाज सुनायी पड़ी तो उसके चेहरे पर एक चमक उभर आयी। दरवाजा उसी बूढ़े व्यक्ति ने खोला जिसे देखते ही लगा कि हजार-हजार बोझों से दबा हुआ होगा और जीवन में नाउम्मीदी के सिवा इसके पास कुछ भी नहीं है।

उसने पूछा,"कौन हैं आप लोग?"

"मुझे तो आप पहचानते होंगे?" दलाल ने हाथ जोड़ा। लगा,वह व्यक्ति पहचानने की कोशिश कर रहा है,बोला," रामधन हो क्या?"

"हाँ हाँ, रामधन ही हूँ भाई। आप पहचान भी नहीं पा रहे हैं," दलाल गर्मजोशी से आगे बढ़ा। हम तीनों भीतर चले आये। तिपाई के चारों ओर कुर्सियाँ थीं। दलाल ने मुझसे बैठने के लिये आग्रह किया और उस व्यक्ति की ओर मुखातिब हुआ," आपने जैसा कहा था---बिल्कुल आपकी पसन्द के अनुसार, आपकी शर्तों के अनुसार ये साहब हैं। लगभग महीना भर? ," उसने मेरी ओर देखा।

"हाँ, लगभग यही," मैंने हामी भरी।

"तो ठीक है," बूढ़ा आदमी किंचित खुश हुआ। उसकी आँखों की चमक देखकर मुझे खुशी हुई। शीघ्र ही उसके चेहरे पर चिन्ता की लकीरें उभर आयीं और वह सशंकित हो उठा। बोला,' पहले कमरा देख लें, शायद पसन्द न आये।"

मैंने कहा,' नहीं,पसन्द की कोई बात नहीं है। घर,घर ही होता है,कोई होटल थोड़े ही है। घर की अपनी महत्ता है।"

"साहब को किराया समझा दीजिये," दलाल बोला।

'पचास रुपये रोज से कम में किराया क्या हो सकता है?  यह तो घर के बीच का कमरा है, सारी जगहे खुली ही रहेंगी। होटल में तो दो सौ रुपये से कम में कहीं नहीं मिलेगा।"

मैंने हामी भर दी और मन ही मन खुश हुआ। दलाल चला गया। उसे मैंने दस रुपये देना चाहा परन्तु वह पच्चीस रुपये से कम में माना ही नहीं। थोड़े नानुकुर के बाद मैंने उसे उसके मनचाहे पैसे दिये और वह खुश होकर चला गया। मुझे अद्भुत शान्ति महसूस हुई।

मेरा कमरा बाहरी बैठका से सटा हुआ था जिसका दूसरा दरवाजा भीतर आंगन की ओर खुलता था। कमरा कोई बड़ा नहीं था और उसकी साज-सज्जा भी कोई विशेष नहीं थी। दीवारों पर चार-पांच कैलेण्डर थे। एक में पहाड़ों की खूबसूरती थी और पहाड़ी लड़कियाँ किसी नृत्य की भाव-भंगिमा में बहुत सुन्दर लग रही थीं। दो कैलेण्डर में हनुमान जी और भगवान शंकर जी सपरिवार थे। मैंने अपने दाहिने तरफ देखा,वहाँ का कैलेण्डर थोड़ा पुराना लगा परन्तु वह अनेक पन्नों वाला था और हर पृष्ठ पर भिन्न-भिन्न मुद्राओं में फिल्मी नायिकायें थीं। जिस कैलेण्डर ने सर्वाधिक ध्यान खींचा वह मेरे पीछे की दीवार पर टंगा था। वह किसी कलाकार की अद्भुत कला थी। लगभग अर्ध नग्न तरुणी का अप्रतिम सौन्दर्य छलका पड़ा था। बहुत अच्छा लगा कि यहाँ, कोई न कोई तो है जिसकी कलात्मक अभिरुचि है।  

पलंग भी पुराना था और उसकी चादर बदल दी गयी थी। वाश-बेसिन दरवाजे से  थोड़ा बाहर खुले में था। मुझे जल्दी ही स्नान-घर आदि दिखा दिया गया और  मैं बिना देर किये भीतर घुस गया। जब तक हाथ-मुँह धोकर कमरे में वापस लौटा, बूढ़ा आदमी बैठा रहा। मेरे बैठ जाने के बाद लड़की चाय की केतली और कप लेकर आयी। साथ में बिस्कुट से भरा प्लेट भी था।

मैंने लड़की को देखा। वह सुन्दर लगी। नहीं,नहीं,बहुत सुन्दर बल्कि अनुपम थी। मन ही मन बहुत खुश हुआ। उस दलाल को याद करके पुनः धन्यवाद दिया जिसने मुझे ऐसी जगह पहुँचाने में मदद की। अब मेरा शोध भी हो जायेगा और यहाँ मन भी लगा रहेगा। अच्छा लगा,भले ही ये लोग धन के अभाव में जी रहे हैं परन्तु सलीकेदार लोग हैं। ऐसे लोगों के साथ  दिन अच्छे से गुजर जायेंगे। समझ गया हूँ--सौन्दर्य का अपना प्रभाव होता है। किसी सौन्दर्यमयी मूर्ति के साथ रहने का सुख अलग ही है। सौन्दर्यमयी के साथ जीने का सुख मिले या समर्पित होने का मुझे तो पूजा करनी है। सौन्दर्य का उपासक हूँ और चितेरा भी। असली सुख किसी एकान्तिकता का नहीं बल्कि किसी मनोनुकूल के साथ का होता है। खुशी है कि मेरे जीवन में सहज ही यह सुखद संयोग बना है। मन यों ही तो आकर्षित नहीं होता,अवश्य ही किसी जन्म का टूटा हुआ भाग्य जागा होगा।

"यह मेरी बेटी है,"उस बूढ़े ने लगभग गौरवपूर्ण तरीके से उसका परिचय दिया। उसने चाय की केतली, कप को टेबुल पर रखा और दोनों हथेलियों को जोड़कर बहुत ही सौम्य तरीके से नमस्ते कहा। मैंने भी प्रति-उत्तर में हाथ जोड़े और नमस्ते कहा। उसके चेहरे पर स्मित मुस्कान उभरी। पिता खुश हुआ और बोला,"मेरी बेटी पढ़ने में बहुत तेज और समझदार है।"

एक-दो दिनों में ही मुझे घर की आर्थिक स्थिति का ज्ञान हो गया। कुछ भी छिपा नहीं रहा। उन लोगों ने भी कुछ छिपाने की कोशिश नहीं की। हालांकि दलाल ने बहुत कुछ समझा दिया था और शेष सब कुछ यहाँ आने के बाद स्पष्ट होता गया। पुनः जब वह केतली, कप ले जाने आयी तो मैं स्वयं को उसे देखे बिना रोक नहीं पाया। बल्कि मैंने गौर से देखा। शायद उसे भी अहसास हो गया कि मैं उसे देखना चाहता हूँ या उसके सौन्दर्य से अभिभूत हूँ या उसे पसन्द करने लगा हूँ। मुझे स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है कि उसके लावण्य और सौन्दर्य से प्रभावित हो चुका था। उसने बहुत ही संयत तरीके से कप उठाया और भरपूर निगाह मुझपर डाल चली गयी।

आम भारतीयों की तरह यह भी परिस्थितियों से जूझता परिवार है और आज इनका जीवन संघर्षमय हो चला है। वह भी एक इंसान है परन्तु थक चुका है। उसके पास आय के सारे स्रोत समाप्त हो गये हैं। जिम्मेदारियाँ खत्म नहीं हो रही हैं। वह खोया-खोया रहता है। बोझ उठा नहीं पा रहा है और ढो भी नहीं पा रहा है।

"घर में और कौन-कौन है?" बातों का सिलसिला बनाये रखने के लिये जानबूझकर मैंने पूछा। मुझे उस पिता का विश्वास भी जीतना था और सही तरीके से उनका सहयोग भी करना था। भीतर के उतावलापन को मैंने बार-बार दबाने का प्रयास किया और अपनी सम्पूर्ण हरकतों पर नियन्त्रण रखा। किसी चालाक शिकारी की तरह बहुत से तर्क-कुतर्क उठते थे परन्तु मैंने उनका सहारा नहीं लिया। दरअसल मुझे भीतर ही भीतर उन सभी के प्रति अपनापन जैसा अनुभव हो रहा था। हृदय कभी गलत सलाह नहीं देता और ऐसे मामलों में कभी भी बुद्धि से काम नहीं लेना चाहिये।

" मोहन, मेरा बड़ा बेटा है, आवारा है और इस घर पर स्थायी रुप से बोझ है। उसकी उम्र आप ही के बराबर होगी परन्तु निकम्मा है। उसका दढ़ियल चेहरा खूंखार दिखता है। उसे मेरी या बहन की कोई चिन्ता नहीं है। उसे अपनी भी चिन्ता नहीं है," सहसा बूढ़ा आदमी मौन हो गया। मुझे स्पष्ट हुआ कि पुत्र की पीड़ा से उनका मन भावुक हो उठा है।

"कहाँ है मोहन?"

"पड़ा होगा कहीं शहर के किसी अंधेरे में दोस्तों के साथ," पिता के चेहरे पर विषाद और घृणा के भाव जाग उठे।

"मैं मिलना चाहूँगा उससे। जब आपका बेटा घर आये तो बताइयेगा," मैंने आग्रह-पूर्वक कहा।

पिता के चेहरे पर विचित्र सी हँसी के भाव उभरे। उन्होंने कहा," क्या कीजियेगा उस नालायक से मिलकर? देर रात गये आता है और चादर तान लेता है। मुझसे बात तक नहीं करता। क्या पता,मुझसे घृणा करता है शायद---।"

मैं सिहर उठा,पिता की लाचारगी और बेबसी देखकर। उनकी बूढ़ी आँखें भर आयीं। उनका दुख है कि जिस पुत्र को उनका और घर का सहारा होना चाहिये,वह पिता से बात तक नहीं करता।

"बाबा! किशोरी आयी है," पर्दा हटाकर उनकी बेटी ने सूचित किया।

"अभी आया बेटा! "बूढ़ा उठ खड़ा हुआ। मेरी ओर देखते हुए उन्होंने कहा," आपका खाना हमारे साथ ही होगा। आप नहा-धो लीजिये। तब तक मैं किशोरी के पिता से मिलकर आता हूँ। रघु मेरा बचपन का साथी है। किशोरी उसकी इकलौती बेटी है। अच्छा है,उसे कोई लड़का नहीं हुआ,नहीं तो मोहन की तरह आवारागर्दी करता फिरता।"

बात मेरे गले नहीं उतरी। लड़का होगा तो आवारा ही होगा,कोई जरूरी तो नहीं। सभी लड़के क्या आवारा ही होते हैं? हरगिज नहीं। वरना यह दुनिया ऐसे ही आवारा लोगों से भर गयी होती।

मैंने उनसे अपनी असहमति नहीं जतायी क्योंकि उनकी मनःस्थिति शायद सच सुनने, समझने की नहीं थी। कहना तो यह चाहता था कि मां-बाप स्वयं जिम्मेदार होते हैं ऐसी परिस्थितियों के लिये। क्या यह बूढ़ा आदमी,जिसका नाम तक मैं नहीं जानता,मोहन के लिये जिम्मेदार नहीं है?

पिता के जाने के बाद तरूणी अपनी सहेली किशोरी के साथ कमरे में उपस्थित हुई। लगा,कोई मधुर हवा का सुगन्धित झोंका पूरे कमरे को तरोताजा कर गया है। उसने कहा,"यह मेरी सहेली है।"

"किशोरी है,"मैंने जोड़ा। किशोरी का गौरवर्णीय चेहरा लाल-गुलाबी हुआ। हम सभी हँस पड़े।

"तुम्हारा भाई मोहन कहाँ है?" मैंने अपने तरीके से उसके बारे में खोजबीन शुरु की।

"रात के पहले तो आता नहीं है," लड़की ने धीरे से कहा। मुझे खुशी हुई कि वह मुझसे बिना किसी संकोच के बातें कर रही है। किशोरी भी उसका भरपूर साथ दे रही है। दोनों समवयस्क लड़कियाँ बहुत अन्तरंग हैं और एक-दूसरे को सहयोग करती हैं।

फिर मैंने स्नान करने का उपक्रम शुरु किया। दोनों बाहर जाने लगीं। "जरा सुनिये," मैंने पुकारा। "मेरा नाम विभा है," मुस्कराते हुए वह वापस मुड़ी।

"अच्छा की नाम बताकर। नाम से पुकारने में आसानी होती है।" मैंने कहा।

"किसको बुलाया जा रहा है, यह भी स्पष्ट होता है," वह हँस पड़ी। उसकी निश्छल हँसी बहुत प्यारी लगी। मैंने कहना 
चाहा," अग्रिम भुगतान के लिये----।"

"बाबा को ही दीजियेगा,"बोलकर तेजी से विभा वापस चली गयी।

नहाकर मैं वापस आया और कमरे की बारीकी से छानबीन करने लगा। पिता जिनका नाम विभा ने भोलानाथ बताया था,उनके वापस लौटने में देर हो रही थी। विभा ने आग्रहपूर्वक कहा, " यदि पीने का पानी या ऐसी कोई आवश्यकता हो तो मांग लीजियेगा।"

मैंने पाजामा-कुर्ता पहना और बाहर निकल गया। शाम में लगभग नित्य ही ऐसा करने लगा। भीड़ के बीच से गुजरते हुए,लोगों को भागते-दौड़ते देखते हुए महसूस करता था कि सभी के जीवन में भागम-भाग है। किसी को न शान्ति है,न चैन है। पता नहीं क्यों लोग इतनी बेचैनी का बोझ लेकर जीते हैं? वापस लौटा। भोलानाथ जी भी लौट आये थे, मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने साथ ही भोजन किया। मोहन अभी भी नहीं आया था। मन ही मन मैंने तय किया कि अपने शोध में कम से कम एक प्रसंग इस घर का जोड़ूँगा ही।

दरअसल मेरी मनःस्थिति खास दिशा की ओर मुड़ने लगी थी, भीतर-भीतर मानो कोई लगन जाग गयी थी। विभा मेरी सर्वप्रिय पसन्द बन चुकी थी और चाहता था कि अधिक से अधिक वह मेरे साथ रहे,मेरे आसपास रहे। सुखद संयोग यह हुआ कि वह मेरे साथ या आसपास रहने लगी। छोटे से पुराने घर में बहुत दूर-दूर रह पाने का कारण भी नहीं था। दूसरी अच्छी बात यह हुई कि उसके पास सुनाने के लिये बहुत सी बातें और कहानियाँ थीं तथा मैं सुनने के लिए लालायित।

चंद दिनों में ही मैंने अनुभव किया कि मोहन के लिये यह घर,यहाँ के लोग महत्वहीन हैं और वह भी अपना मूल्य खो चुका है। थोड़ी खुशी हुई कि इनके बहाने से ही मानविकी के अन्तर्सम्बन्धों की जटिलता को समझ सकूँगा। आखिर मनुष्य किन-किन परिस्थितियों में, किन-किन कारणों से घर-समाज के लिये महत्वहीन हो जाता है। किन हालातों में किसी का जीना-मरना कोई अर्थ नहीं रखता? मोहन शायद वैसा ही है। घर-परिवार और समाज के बंधन से अलग,स्वतन्त्र और निठल्ला। भावनाओं के धरातल पर उसकी पहुँच नहीं के बराबर है,शायद उसके भीतर का वह स्रोत ही सुख गया है।

एक सहज प्रश्न मेरे सामने बार-बार खड़ा हो रहा था-आखिर वह भी तो इंसान है धरती का,हम सबकी तरह हाड़-मांस का मानव। इससे कोई इनकार कैसे कर सकता है? मैं उसे पकड़ना चाहता था,उसको समझना,समझाना चाहता था परन्तु उससे मिलना मुश्किल था। कभी मैंने उसे आते-जाते नहीं देखा। उसी की बहन विभा सब कुछ समझती है। वह घर-गृहस्थी की सारी बाते बताती और मुझे समझाती रहती है। थोड़ा-बहुत मुझे भी समझ में आने लगा कि जीवन का गणित बहुत ही कठिन और कठोर होता है। मैं उसके सौन्दर्य के साथ-साथ उसकी व्यवहार-कुशलता पर मर मिटा था। सौन्दर्य भी है,व्यवहार-कुशल भी है,अब किसी एक लड़की में और क्या चाहिये? विभा उसी तरह की अद्वितीय मूर्ति है।

ऐसी ही खूबसूरत स्मृतियों के साथ मैं वापस अपने गाँव आया था। मेरा शोधकार्य पूरा हुआ और वह विश्वविद्यालय के जर्नल में छपा भी था। टिप्पणी करते हुए विद्वान समीक्षक ने लिखा कि शहरों में इस तरह अपनी पहचान खोते जा रहे लोगों की ओर संकेत करके शोधार्थी ने बहुत बड़ा काम किया है। संस्थाओं,सरकारों और मानवता से सरोकार रखने वाले सभी लोगों का दायित्व बनता है कि इस दिशा में पहल करें।

यहाँ मेरे गाँव के हालात अचानक बदले हुए थे। घर क्या आया, जीवन की सारी कठोर परिस्थितियाँ एक-एक कर मेरे सामने चुनौती-स्वरूप खड़ी होने लगीं। सर्वप्रथम मां चल बसी और कुछ महीनों बाद पिताजी नहीं रहे। मेरे अलावा घर में चार प्राणी और थे जिनका गुरुतर भार चाहे-अनचाहे अनायास ही मेरे उपर आ पड़ा। भाई-बहनों की जिम्मेदारी थी,भागता भी कैसे? बहुत भाग-दौड़ करने के बाद पिताजी के ही कार्यालय में नौकरी मिली।

सोचा,चलो कुछ तो सहारा हुआ। शायद दुर्दिन देखना अभी शेष था,एक दिन मेरा छोटा भाई घर छोड़कर भाग गया। हृदय पर वज्राघात सा लगा। मैं टूट कर बिखर ही जाता यदि विभा की स्मृतियाँ मेरा सहारा नहीं बनती। उन्हीं यादों के सहारे मैं लड़ता रहा और परिस्थितियों से जुझता रहा। पढ़ाई-लिखाई का प्रभाव हो या मेरी लगनशीलता का जल्दी ही दफ्तर में मुझे पदोन्नति मिली। क्लर्क से अधिकारी बना और शहर दर शहर की मेरी भटकन भरी जिन्दगी शुरु हुई। 

कार्यालय के काम से बीच में एक बार विभा के शहर जाने का सुअवसर मिला। उन गलियों में भटका, भोलानाथ जी से भेंट हुई। वे बीमार थे और बहुत कमजोर भी। शायद अपने जीवन की अंतिम घड़ियाँ गिन रहे थे। मेरी निगाहें विभा को तलाश रही थीं। वह कहीं दिख नहीं रही थी। मेरे मन में नाना शंकाये डूब-उतरा रही थीं।

भोलानाथ जी ने वज्रपात करते हुए कहा," विभा स्थानीय कालेज के प्रवक्ता के साथ शादी रचा अपना संसार बसा चुकी 
है।"

मेरे हृदय पर हथौड़े की चोट सा पड़ा। यदि दीवार का सहारा नहीं लेता तो गिर पड़ता। उनकी बातें जारी थीं," दीपक नाथ मेरा घर-संसार सब लेकर चला गया। विभा चली गयी उसके साथ और मेरा घर सूना हो गया। सारा दोष मेरी गरीबी का है। गरीबी के कारण मैं कमरा किराये पर देने लगा। दीपक नाथ भी रहने लगा हमारे साथ। विभा और दीपक कभी किसी स्कूल में साथ  पढ़े थे। दोनों की कक्षायें अलग थीं परन्तु जान-पहचान हो गयी थी। मैंने दोनों के आपसी झुकाव  को महसूस किया। मेरे कान खड़े हुए परन्तु रोक नहीं पाया।

गरीब पिता की लाचारी थी। मैं लाचार था। कौन उससे अच्छा दुल्हा मैं खोज पाता कि उसे रोकता। मैं आवेश में नहीं था परन्तु मन पीड़ित था। हर पिता की तरह मेरे भी कुछ अरमान थे, पर,उसके लिये धन की आवश्यकता थी,सामाजिक साख चाहिये थी। मेरे पास कुछ भी नहीं था। हाँ,दीपक नाथ को सोचना चाहिये था। उसे मेरी स्थिति की पीड़ा समझनी चाहिये थी। देख पाता तो इस बूढ़े चेहरे पर उसे एक बाप की लाचारगी दिखती। उसने नहीं देखा। कोई नहीं देखता है। विभा ने भी नहीं देखा।

मैंने अपने भीतर के तूफान को रोकना चाहा। मुझसे बड़ी पीड़ा बूढ़ा भोलानाथ जी झेल रहे हैं।

" एक तरह से अच्छा ही हुआ," मैंने अपने मनोभावों को दबाते हुए कहा। मैंने पूछा,"क्या आप विभा की इससे अच्छी शादी करवा सकते थे?

"शायद नहीं। निश्चित ही नहीं करवा पाता परन्तु जो भी करता अपनी मान-मर्यादा के साथ करता,शान से करता। मेरी नाक तो नहीं कटती। उस घर में ही क्या विभा बहू के रुप में स्वीकारी गयी? नहीं,उसे बहू का दर्जा नहीं मिला," बूढ़ा फफक कर रो पड़ा।

मेरी उत्सुकता बढ़ती गयी और भोलानाथ जी के प्रति हमदर्दी भी। उन्होंने आगे कहा," उसके पिता ने दोनों को घर से निकाल दिया, जमीन-जायदाद से बेदखल कर दिया। अब दोनों कहीं अलग घर लेकर रहते हैं।"

मेरे पास उस दिन समय नहीं था और कार्यालय में बहुत काम करने थे। उदास और टूटे मन के साथ लौट आया। नियति के खेल को समझना, कहाँ, किसी के बस में होता है?

आज सारे हालात बदल चुके हैं। स्थायी तौर पर मेरी पोस्टिंग विभा के शहर में हुई है। ट्रेन तीव्र गति से भागी जा रही है,मानो शीघ्रातिशीघ्र पहुँचाने के लिये उतावली है। मुझे कोई आकर्षण नहीं है,बल्कि अब मैं विभा के शहर से घबराने लगा हूँ। शायद भोर होने वाली है। वैसे यात्रा में नींद पूरी नहीं हो पाती। अलसाया सा मैंने बाहर देखना चाहा। मौसम में ताजगी है परन्तु भीतर खास तरह की बदबू है। मुझे यह सड़ांध कभी अच्छी नहीं लगती। 

मेरा ध्यान बाहर की ओर है। खेत में फसलें लहरा रही हैं और मौसम में मानो बसंत ने दस्तक दी है। सरसों के पीले फूलों के साथ हरियाली की शोभा अनुपम है। बहुत देर तक प्रकृति की मनोहर छटा को देखता रहा और खेत-खलिहान,बगीचों के सौन्दर्य से अभिभूत होता रहा।

विभा की स्मृति पुनः ताजी हुई। उसने मेरी प्रतीक्षा नहीं की। मन में पीड़ादायक टीस उभरी। " उसका भी दोष नहीं है," मैंने मन ही मन स्वीकार किया,"मैंने भी तो कभी अपने मन की बातें नहीं की थी,ना उससे और ना ही उसके पिता से। मुझे अपने पर बड़ी कोफ्त महसूस हुई और दुख भी।

मेरी ट्रेन पहुँचने वाली है। स्टेशन पर खूब चहल-पहल है। भीड़ है। मुझे लिवा ले जाने के लिये ऑफिस के बहुत से लोग आये हैं। रहने के लिये कालोनी में अच्छा बंगला लिया गया है। कार्यालय की ओर से गाड़ी आयी है। हाथों-हाथ लोगों ने मेरा सारा सामान उठा लिया। इस भागम-भाग में मेरा मन किंचित बेचैन है।

गाड़ी आगे बढ़ी और उस जानी-पहचानी कालोनी में एक बड़े से बंगले के सामने रुक गयी। याद आया,सामने सड़क के उस मोड़ से आगे विभा के शहर का वही पुराना मुहल्ला आता है।

योजना के विपरीत मैंने थकान का बहाना बनाकर सबको विदा कर दिया। वे सबके सब बहुत चिन्तित और शंकित से लगे। मैं उनकी शंकाओं के व्यापारिक कारण को समझता था। मेरी अपनी लाचारी थी। उजड़े हुए प्यार के मसीहा को समझाना था और जीवित रहने के लिये स्वयं को तैयार करना था।

भोलानाथ जी का घर दूर नहीं है। मेरे कदम स्वतः ही गली में मुड़ गये। गली के छोर पर उनके घर के सामने दूर से ही भीड़ दिखाई दी। मेरा हृदय धड़का। भीड़ में दबी जबान बातें हो रही थीं। बाहर से मेरी समझ में कुछ नहीं आया।  भीतर पहुँचा। नीचे जमीन पर भोलानाथ जी का निष्प्राण शरीर पड़ा हुआ है। वे इस नश्वर संसार से प्रयाण कर चुके हैं। मैंने आसपास देखने और ढूंढ़ने की कोशिश की। कहीं भी विभा या मोहन नहीं दिखे। मेरा मन रो पड़ा। आज इस अवस्था में कोई अपना नहीं है इनके पास।

मैंने किसी से पूछा," इनका लड़का था मोहन।"

"उसे घर-परिवार छोड़े जमाना हो गया। पता नहीं,जीवित भी है या नहीं,"उस व्यक्ति ने धीरे से उत्तर दिया। मैंने पुनः पूछा, "एक लड़की थी,विभा?"

"खबर गयी है। देखिये,आती भी है या नहीं?" बिना लाग-लपेट के उसने कहा।

मेरा मन चीत्कार कर उठा। मैं किसी आवेग में कहने ही वाला था, "नहीं-नहीं, वह आयेगी जरूर।" मन का आवेग अचानक शान्त हो गया। भीतर एक नया विचार कौंधा,"क्या मैं कुछ भी नहीं? क्या इस निष्प्राण शरीर से मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है? मेरे रहते लोगों को कहने दूँ कि यह किसी की लावारिस लाश है? क्या मैं हाथ पर हाथ धरे विभा और उसके पति दीपक नाथ के आने की प्रतीक्षा करूँ? क्या मेरा कुछ भी धर्म नहीं है? क्या मैं भी भीड़ में खड़े लोगों की तरह देखता रहूँ?

"नहीं--" मेरा अन्तर्मन चीत्कार उठा। मैंने लोगों से कहा," हमें इनके अंतिम संस्कार की व्यवस्था करनी चाहिये।" सज्जन से दिखने वाले लोगों के सामने प्रस्ताव रखा,"आप लोग आदेश करें। जो भी व्यय होने वाला है ,उसे मैं देना चाहता हूँ। मैं सारी व्यवस्था करने को तैयार हूँ। बस,आप सभी मेरा साथ दीजिये। मैं आप सभी के सामने हाथ जोड़ता हूँ। मेरा अनुरोध स्वीकार कीजिये। "

मेरी आँखें नम हुईं, मन विह्वल हो उठा। लोगों की पुतलियों में चमक उभरी और सब ने मेरी सराहना की। मैंने हाथ जोड़कर भीड़ के सामने निवेदन किया,"कृपया आवश्यक सभी सामग्री भरपूर मात्रा में लायी जाये। यहाँ के विधि-विधान के अनुसार बहुत धूमधाम से अर्थी उठे और पूरे सम्मान के साथ अंतिम-संस्कार हो।  पण्डित,नाऊ सभी बुलाये जायें। पैसे की चिन्ता आप ना करें।"

लोगों ने मुझे कुर्सी पर बैठाया और पूरे सम्मान के साथ चाय-पानी के लिये पूछा। मैंने कहा," भले ही मैं इनके कुल-परिवार का नहीं हूँ,परन्तु इंसानियत के नाते इन्हीं का हूँ,आप सभी का हूँ। सब कुछ सनातन विधि-विधान से ही होना चाहिये।"

मैंने देखा,लोग जय-जयकार कर रहे हैं। भोलानाथ जी की अर्थी सजायी जा रही है। मेरे आग्रह पर लोगों ने बैंड पार्टी को बुला लिया है। फिर तो वहाँ नाना चर्चायें हो रही हैं। लोग खुश होकर मुझे देख रहे हैं। कुछ लोग शंकित भी हैं। लोगों की उत्सुकता का कारण मैं समझ रहा हूँ।  मन ही मन खुश हूँ कि सही समय पर ईश्वर ने यहाँ आने की स्थिति बनायी।

मैंने देखा,विभा किसी व्यक्ति के साथ आ रही है। अवश्य ही दीपक नाथ जी होंगे। वह रो पड़ी--," बाबा,बाबा।"

मैं भावुक हुआ और विह्वल हो उठा, मेरे सपनों की विभा सामने है। "नहीं-नहीं, " मैंने स्वयं को संयत किया,अपने-आप को रोका।  मैंने कहा," विभा! यह समय उदास होने या रोने का नहीं है। तुम तो बहुत समझदार लड़की हो।"

उसकी निगाह सहसा मेरी ओर मुड़ी और मेरे चेहरे पर जम गयी जैसे मुझे पहचानने का प्रयास कर रही हो।

" नहीं पहचानी ना?"

वह गुमसुम सी अपलक देखे जा रही थी। सहसा उसकी पुतलियों में कोई चिर-निद्रा में सोयी हुई चमक उभरी,बोली,"ओह आप? हमारे पहले --------।" वह मौन हो गयी। मौन और शान्त। बस आँखों में आँसुओं की बाढ़ आ गयी। आँखें बरस रही थीं और दिल रो रहा था। स्मृति के झरोखे में सब कुछ स्पष्ट दिख रहा था।

हम दोनों से  गलती हुई कि हमने हृदय की भावनाओं को कभी शब्द नहीं दिया, कभी एक-दूसरे को पुकार नहीं पाये,कभी आवाज नहीं दी। लगा,विभा कह रही है,"मैं पहले दिन से  तैयार बैठी थी,आपने ही अपना नहीं माना।"  सहसा उसकी आँखों में उलाहना के बड़े-बड़े आँसू टपक पड़े।

"नहीं रोते विभा! " मैंने रुँधे गले से कहा।

अर्थी सज गयी थी। बहुत धूमधाम से गंगा तट पर भोलानाथ जी का अंतिम संस्कार सम्पन्न हुआ। चिता धू-धूकर जल उठी। सारा विधि-विधान दीपक नाथ जी ने निभाया। विभा दूर खड़ी किन्हीं खयालों में खोई थी। वहीं बगल में मैं संसार की नश्वरता अनुभव कर रहा था और रिश्तों के ना जुड़ पाने की पीड़ा की टीस भी। कितना कुछ बदल जाता है--समय,परिस्थिति,लोग,उनके रिश्ते और------।

हम लोग लौट आये। गली उजड़ चुकी थी और वह आखिरी मकान विरान हो गया था। सच यह है कि यह गली कभी बसी ही नहीं। उस आखिरी मकान के सारे कैलेण्डर प्रेम और उष्मा को ढोते रहे,दिलों में लौ जलाते रहे।  बस।

विभा मूर्ति सी बेजान खड़ी है। मेरा तो जीवन वही है, पर कह नहीं सकता। मैंने हाथ जोड़ा,"अब जाना चाहता हूँ विभा!"

वह पैरों पर गिर पड़ी,"आप से कैसे उऋण हो पाऊँगी?" उसका रुदन, सिसकना और सुबकना जारी था।

"नहीं विभा! मैंने केवल अपना कर्तव्य निभाया है। ऋणी तो मैं तुम्हारा हूँ। तुम्हारे पिता का हूँ।"

दीपक नाथ आगे आये। उन्होंने पूछा,"आप?"

"एक मसीहा," विभा की मधुर आवाज उभरी।

"हाँ, उजड़े प्यार का," मन ही मन मैंने कहा। मैंने महसूस किया सारे कैलेण्डर के पन्ने फड़फड़ा रहे हैं और मेरे प्यार की कहानी सुना रहे हैं। 

-विजय कुमार तिवारी
 भुवनेश्वर, उड़ीसा, भारत
 ईमेल: vijsun.tiwari@gmail.com

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