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दो ग़ज़लें (काव्य) |
Author: विनीता तिवारी
बसर ज़िंदगी यूँ किये जा रहे हैं
न सपने न अपने, जिये जा रहे हैं
मेरे पास दौलत न दुनिया है यारों
फ़क़त आँसुओं को पिये जा रहे हैं
बताने की कोशिश बहुत की मगर वो
लबों से लबों को सिये जा रहे हैं
यहाँ दर्द बिकता है, ख़ुशियाँ हैं बिकती
लिये जा रहे हैं, दिये जा रहे हैं
ये मुल्ला ये पंडित महज़ कारोबारी,
हिसाबों में गड़बड़ किये जा रहे हैं
रहे कल तलक सीखते जो हमीं से
नसीहत वही अब दिये जा रहे हैं
- विनीता तिवारी
वर्जीनिया, यू एस ए
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अपने मंदिर अपने गिरजे को संभाले रखना
साथ इंसानियत को दिल मे खंगाले रखना
कौन जाने किस इरादे से मिले थे वो कल
अपनी क़िस्मत को दुआओं के हवाले रखना
कब मैं छप जाऊँ किताबों में कहानी बनकर
अपने घर में, अपने दफ़्तर में, रिसाले रखना
जानता हूँ तेरा मिलना तो नहीं है मुमकिन
फिर भी उम्मीदों से भरकर दो पियाले रखना
भूख ना जाने किसे, कैसे किधर ले जाए
पेट भर खाने-खिलाने को निवाले रखना।
जीत जाएँगे मुसीबत से महज़ लम्हों में
अपने बच्चों के खिलौनों में शिवाले रखना
- विनीता तिवारी
वर्जीनिया, यू एस ए