अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

कहाँ तक बचाऊँ ये-- | ग़ज़ल (काव्य)

Author: ममता मिश्रा

कहाँ तक बचाऊँ ये हिम्मत कहो तुम
रही ना किसी में वो ताक़त कहो तुम

अंधेरी गली में भटकता दिया भी
कहाँ है उजालों की राहत कहो तुम

मिटी जा रहीं हैं यहाँ बस्तियाँ भी
रुकेगी ये कब तक आफ़त कहो तुम

खुदाया ज़रा एक दिखला करिश्मा
ज़रूरत कहो चाहे शिद्दत कहो तुम

मिटा कर जहाँ भी मिलेगा भला क्या
बनाना है दो ज़ख कि जन्नत कहो तुम

-ममता मिश्रा
 नीदरलैंड्स
 [साभार : मजलिस]

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