अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

यादें (काव्य)

Author: सुएता दत्त चौधरी

तुमसे जुदा हो कर
कम हुई है मेरी मुस्कान
जहाँ बैठी तुझे निहारती थी मैं
याद आता है अक्सर मुझे
वह अस्सी घाट।

हलके नीले अम्बर के नीचे
हलकोरे नाव से टकराती थी
उपहार बना जहां कभी, वह सावन का मेला
याद आता है अक्सर
वह चूड़ियों का ठेला।

हर-हर महादेव की जयकार
अब भी कानो में गूंजती है
भस्म लगाकर जहाँ झूमते शिवभक्त
याद आता है अक्सर
वह मणिकर्णिका घाट।

ज्ञान की राजधानी कहलती बीएचयू
जहाँ हर दिन एक त्योहार है
मालविया जी की आभा जहाँ आज भी बरसे
याद आता है अक्सर
वह गुरुजनों का शुभाशीष।

बनारस की हर गली से बंधी हूँ मैं
सावन पतझड़ या चाहे बसंत बहार
हर मौसम में हँसी-रोई हूँ मैं
दूरियां चाहे सात समुन्दर की क्यों ना हो
याद आती हैं अक्सर
बनारस की खट्टी-मीठी यादें।

सुएता दत्त चौधरी
फीजी
[साभार : मजलिस]

 

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