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मॉरीशस के चार कवियों की कविताएँ (काव्य) |
Author: भारत-दर्शन संकलन
बापू के संदेश
हे बापू!
देते है रोज़,
कपबोर्ड पर बैठे,
आपके बन्दर,
कुछ संदेश
सतयुग के।
फिर भी,
बज जाते हैं कान मेरे
बच्चों, स्त्रियों, निर्दोषों के
फटते जिस्मों के धमाकों से
लाशों के बीच,
निरंतर चलते,
बन्दूकों के शोर से।
धुन्धली पड़ जाती है आँखें मेरी
मैक्डोनाल्ड के सामने
कराहते भिखारी की
भूख पर
सीना ताने
ऊँची - ऊँची इमारतों से
कुछ ही दूर
बरसात के आतिथ्य को स्वीकारते
बेछत आशियानों पर।
और गालियाँ भी
निकल जाती हैं
बार बार मुख से मेरी
कभी मुखौटों की आढ़ में,
कभी सरे आम,
चारों ओर से बंधे
संघर्षरत लोगों को
लूटते नेताओं पर
हिंसा ये प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष
कब तक चलेगा !
चिन्तन-मनन करके
थक गया मैं
अब आप ही बताइए, बापू...
कैसे सुनेगा
कलियुग का पशुश्रेष्ठ
सतयुग के बन्दरों की!
कभी मन हुआ कि
आप ही आ जाएँ
फिर से राह दिखाएँ
परन्तु
कैसे स्वीकारेगा वह
जिसका अस्तित्व ही
सत्य और झूठ के बीच
झूल झूल कर
मिथ्या बन गया है,
आपके सत्य को।
कैसे अपनाएगा वह,
जिसके लिए
ख्याति, जाति, नीति
हर बहाना
बन गया जायज़
हिंसा हेतु,
आपके अहिंसा को।
मुझ लघु मानव की
लघु दृष्टि में तो
अच्छा है बापू कि आप
फिर नहीं आते
आप फिर आएँगे
तो आज का मानव
अपने घर बुलाएगा,
आपका स्वागत करेगा,
खिलाएगा, पिलाएगा,
आपके संदेशों को भी सुनेगा
और फिर उनपर...
हँस देगा
खिलखिलाकर।
- वशिष्ठ कुमार झमन
हिंदी शिक्षक, एबेन माध्यमिक पाठशाला
मॉरीशस
#
आम आदमी तो हम भी हैं
नहीं आती हँसी अब हर बात पर
लेकिन ये मत समझना कि मुझे कोई दर्द या ग़म है
बस नहीं आती हँसी अब
हर बात पर
अगर हँस दें, कहीं तुम ये न समझ बैठो
कि मैं खुश हूँ अपनी हालात पर नहीं तो ठहाके लगाना हमें भी आता है
हाँ, तकलीफ़ बहुत हैं
वो ही, जो हर आम आदमी की होती है
अब आपको क्या गिनाऊँ--
ये तो अब घर-घर की कहानी है
लेकिन ये मत समझना कि मुझे कोई दर्द या ग़म है
बस नहीं आती हँसी अब हर बात पर
लेकिन अब डर लगता है, डर लगता है
उन शातिरों से जो अंदर तक झाँककर
मेरी रूह को निगल जाती है
डर लगता है
उस निकटता से जिसमें डसने वाला एहसास है
डर लगता है
उन वायदों से जिससे सड़न-सी बदबू आती है
डर लगता है
उन खुशियों से जिसमें दिए नहीं हम खुद जल जाते हैं
डर लगता है ... अपनी औकात से
जो ज़िंदगी भर वो ही की वो रह जाती है
खूँटियों पर टंगे फटे चद्दर-सी
सालों पहले लिखे स्टेटस को ही
अपडेट कर लेते हैं बार-बार साल-दर-साल क्योंकि नया तो कुछ भी नहीं न ही सोच बदली न ही दशा, न दिशा
खड़े तो हम अब भी वहीं हैं
जहाँ से सफ़र की शुरुआत की थी, तो फिर स्टेटस क्या बदलें जब स्टेटस ही नहीं बदला....
लेकिन चेहरा छुपाए वो स्माइली वाली मुस्कान देना
अब सीख चुके हैं
सीख चुके क्या ..अब तो आदत सी हो गई है ..
क्योंकि आम आदमी तो हम भी हैं
आम आदमी तो हम भी हैं
फिर भी पता नहीं क्यों
नहीं आती हँसी अब हर बात पर
- श्रद्धांजलि हजगैबी-बिहारी
ईमेल : hajgaybeeanjali@gmail.com
#
नास्तिक
माँ
मैं नास्तिक तो नहीं।
फिर भी बाध्य हूँ
तुझी से तुझपर प्रश्नचिह्न लगाने को।
तुझे देख उठती नहीं मेरी भक्ति
छिप गई तू
धन-वैभव, समृद्धता, दिखावे की आड़ में।
मस्तिष्क में कहीं
अब भी गढ़ी है, वह चित्र तेरा
जहाँ पाँच रुपये का सिंदूर,
एक चंदन, दो बूँद पानी, दो बूँद चाँक, एक घूँट दूध
अस सादे लाल 'तेत्रोन' में लिपटी पड़ोस से मिली
नारियल के सामने गिराकर
जब रोंगतें खड़ी हो जाती थीं।
पर अब जाने क्यों
तिलमिलाती बल्बों, गरजते लाऊड स्पीकरों,
और भक्तों के मेले में भी,
तू नहीं दिखती
न मेरी भक्ति।
-अरविंदसिंह नेकितसिंह
हिंदी शिक्षक, महात्मा गांधी माध्यमिक पाठशाला
मॉरीशस
#
कोई तो है!
कोई तो है....!
जो मुझसे कुछ पूछता है!
हर सच के
परिणाम से घबराकर,
हर झूठ के बाद,
कोई तो है,
जो मुझसे कुछ पूछता है!
द्वंद्व भरे,
विवादों के बाद
मेरे हर अनिश्चित,
निश्चय पर
कोई तो है,
जो मुझसे कुछ पूछता है!
अपनी हर प्रतिज्ञा,
हर वचन को
न निभा पाने पर,
कोई तो है,
जो मुझसे पूछता है
अपनों के प्रति होते
हर अन्याय
हर छल को देख कर
जब भी मुंह फेरना चाहता हूँ
कोई तो है,
जो मुझसे कुछ पूछता है!
अपनी छोटी सी छोटी आशाओं,
सपनों का,
श्राद्ध- करने पर,
कोई तो है,
जो मुझसे कुछ पूछता है!
मन-मस्तिष्क में,
उठे सैकड़ों सवालों के लिए,
उत्तर में,
वही..... घिसा-पिटा
पुराना......
एक सवाल !
पूछने पर
कोई तो है,
जो मुझसे कुछ पूछता है!
अब......!
यही डर लगा रहता है,
कि कहीं.....,
ऐसी स्थिति न आए
जहाँ पर,
कुछ भी होने पर....
कुछ भी करने पर....
कुछ भी सोचने पर....
कुछ भी कहने पर....
कुछ भी....
पूछने के लिए,
कोई न होगा
तो...?
- सेहलिल तोपासी (सलिल)
हिंदी शिक्षक, बेल एयर सरकारी माध्यमिक स्कूल
ईमेल: sehlil1986@gmail.com
मॉरीशस