अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

श्रवण राही के मुक्तक  (काव्य)

Author: श्रवण राही

ज़ुल्फ़ें जो अंधेरों की सँवारा नहीं करते
काँटों पे कभी हँस के गुज़ारा नहीं करते
देखा है हमने उनको किनारों पे डूबते
कश्ती को जो मौजों में उतारा नहीं करते

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ख़ुश तो मैं भी नहीं अपना तन बेचकर
पेट भरती हूँ यौवन रतन बेचकर
बदचलन आप जैसी मगर मैं नहीं
चंद टुकड़ों में रख दूँ वतन बेचकर

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प्रेम के गीत लिख व्याकरण पर न जा
मन की पीड़ा समझ, आचरण पर न जा
मेरा मन कोई गीता से कम तो नहीं
खोल कर पृष्ठ पढ़, आवरण पर न जा

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सभी को इस ज़माने में सभी हासिल नहीं मिलता
नदी की हर लहर को तो सदा साहिल नहीं मिलता
ये दिलवालो की दुनिया है अजब है दास्तां इसकी
कोई दिल से नहीं मिलता, किसी से दिल नहीं मिलता

-श्रवण राही

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