अपनी सरलता के कारण हिंदी प्रवासी भाइयों की स्वत: राष्ट्रभाषा हो गई। - भवानीदयाल संन्यासी।
 

सात कविताएँ (काव्य)

Author: डॉ. वंदना मुकेश

परिचय

परिचय के
कई पन्ने पढ़ लिये,
तुम्हारा बोलना ही
तुम्हारा बायोडेटा है

 

विश्वास

तुमको और मुझको
जोड़े रखा था
विश्वास के पुल ने
ढह गया यो अचानक
और
मैं इस पार,
तुम उस पार

 

उगन

जब जब मैं
भीतर से
उगना चाहती हूँ
कुकर की सीटी
दरवाजे की घंटी रोक
लेती है

मैं बंद कर देती हूँ गैस
खोल देती हूँ दरवाज़ा
और फिर
विलीन हो जाती है उसमें
आलोढ़ित होती
मेरी उगन

 

कोरोना

छत होती तो देखती,
गली से निकलते
प्रवासी मजदूरों की टोलियाँ।
देखती कुछ औरतें,
कुछ बच्चे लटकाए,
कंधों पर झोले अटकाए।
कुछ औरतें,
खाली पेटवाली,
कुछ पेटवाली खाली।

मुझे छत चाहिये
कि देख सकूँ मैं
खुला आसमान।

और वह
खुला आसमान देख सकती है
वह देखती नहीं है
पर छत उसे भी चाहिये

 

डिमेंशिया

रख कर भूल जाती हूँ
मैं।
कुछ बेमानी सी चीज़ें,
जैसे, पानी का गिलास या कपड़े,
या फिर लेना दवाई ।
वे
महीनों सुध नहीं लेते।
फिर अचानक,
घोषित कर देते हैं बच्चे मेरे,
अम्मा को हो गया डिमेंशिया।

 

कल

हर रोज सोचती हूँ
कल करने के कामों की ,
सूची बनाती हूँ
न जाने कैसे फिर ,
आज ही आ जाता है ।
मेरा काम अधूरा ही रह जाता है।

अब मैंने तय किया है
कल के बारे में नहीं सोचूँगी
अब मैंने तय किया है ,
कल के कामों की
सूची नहीं बनाऊँगी।

क्योंकि कल बड़ा बेवफ़ा है।
चेहरा बदल लेता है
झट, आज बन जाता है
फिर मुँह चिढ़ाता है

अब, कल से मेरा कोई वास्ता नहीं
कल , अब मेरा रास्ता नहीं
आज ही को जीती हूँ मैं
आज ही को पीती हूँ

यदि तुमने भी रख छोड़े हैं
कल के लिये कुछ काम
तो मित्रवत् सलाह देती हूँ
हितचिंतक हूँ तुम्हारी
मान लो मेरी , सच कहती हूँ
कल से दोस्ती न करना
आज ही जी लेना।

 

पुल

उस पीढ़ी से इस पीढ़ी तक
कई पुल बनने हैं।
कुछ कदम तुम चलो,
कुछ मैं।

याद रखना,
बनाओ जब पुल तो
इनमें सरकारी सीमेंट न हो,
दीवारों में सेंध न हो।

बनाना तुम, लोहे की नींव
लगाना तुम, प्यार की सीमेंट
विश्वास की थापी से।

फिर देखना, आहिस्ता-आहिस्ता
बनेगा जो पुल ,
उसी पर से देखेंगे हम
उगते सूरज को साथ-साथ।

--डॉ. वंदना मुकेश
  ईमेल : vandanamsharma@hotmail.co.uk

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